Tuesday, April 28, 2009

एनडीटीवी में बड़े पैमाने पर छंटनी

दो दिन पहले हमने आपको बताया था कि एनडीटीवी दिल्ली में बड़े पैमाने पर छंटनी होने वाली है। अब उसकी शुरुआत हो गई है। पहले दौर में सोमवार को एनडीटीवी से १४ लोगों को हटा दिया गया है। ३० अप्रैल को होने वाली बोर्ड की बैठक से पहले यानी अगले दो दिन में कई और लोग हटाए जा सकते हैं।
एनडीटीवी इंडिया के आउटपुट यानी डेस्क से ७, इनपुट से एक पत्रकार, दो एंकर और चार कैमरापर्सन हटाए गए हैं। हटाए गए लोगों में ज़्यादातर वो लोग हैं ....
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“सारे पत्रकार दलाल बन गए हैं”

((सत्ता का आतंक क्या होता ये जानना है तो आप छत्तीसगढ़ जाइये। वहां सरकार और कंपनियों की तानाशाही चल रही है। इस तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की जगह मीडिया ख़ामोश है। वजह सिर्फ़ एक। अगर सरकार के ख़िलाफ़ कुछ लिखा तो विज्ञापन बंद। कंपनियों के ख़िलाफ़ कुछ भी लिखा तो वो सत्ता को चुनौती समझी जाएगी। डर के मारे मीडिया चुप है। नतीजतन सरकारी तंत्र, सलवा जुडुम जैसी उसकी बनाई संस्थाएं और कंपनियां खुलेआम मानवाधिकारों का हनन कर रही हैं। लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं। इस ख़तरनाक साज़िश से पर्दा उठा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी। उनका लेख हमनेhttp://infochangeindia.org/Agenda/Reporting-conflict/The-art-of-not-writing.html से साभार लिया है। इसकी पहली किस्त हम आज छाप रहे हैं। आप भी पढ़िये और सोचिये कि मीडिया की ख़ामोशी का अंजाम कितना ख़तरनाक हो सकता है।))

मैं, भैरमगढ़ में सलवा जुडुम की रैली को कवर करने गया था। दक्षिणी छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में भैरमगढ़ एक छोटा कस्बा है। वो इलाका जहां सरकार माओवादियों के ख़िलाफ़ ख़ूनी लड़ाई लड़ रही है। सरकार के मुताबिक, सलवा जुडुम ऐसा जन आंदोलन है जो माओवादियों के ख़िलाफ़ खुद ब खुद उत्पन्न हुआ है। जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे ऐसा क्रूर आतंकी संगठन मानते हैं जिसे सरकार ने तैयार किया है।

रैली को जंगल में, आदिवासी इलाकों के उन संकरे रास्तों से गुजरना था जहां चारपहिया गाड़ी नहीं जा सकती थी। इसलिए सलवा जुडुम के नेता महेंद्र कर्मा ने मेरे लिए मोटरसाइकिल की सवारी का बंदोबस्त कर दिया। रास्ते में बातचीत के क्रम में पता चला कि मोटरसाइकिल चलाने वाला स्थानीय पत्रकार है। उससे हुए बातचीत ने मुझे स्थानीय पत्रकारिता को समझने में काफी मदद की।

वो पत्रकार छत्तीसगढ़ के एक बड़े अख़बार के लिए काम करता है। “आपको कितनी तनख़्वाह मिलती है” मैंने पूछा। “मुझे वेतन नहीं मिलता” उसने जवाब दिया। “ओह, तो आपकी रोजीरोटी कैसे चलती है?” उसने जवाब दिया “कुछ नहीं लिख कर।
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कहीं “आज़ादी” एक ख़्वाब तो नहीं ?

पत्रकारों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट की वेबसाइट पर जाइये तो वहां लिखा मिलेगा “जहां पत्रकार भ्रष्टाचार, डर और गरीबी में रह रहे हैं, वहां प्रेस की आज़ादी मुमकिन नहीं”। इस बात के मायने काफी बड़े हैं, खासतौर से आज के माहौल में। आज पूरी दुनिया में पत्रकार डराए धमकाए जा रहे हैं। मंदी के कारण नौकरियों पर तलवार लटक रही है। मैनेजमेंट उन्हें हटाने की धमकी दे रहा है। बेतुकी शर्तों को मानने पर मजबूर कर रहा है। तो कहीं आतंकी हमलों में उनकी जान जा रही है। कुछ जगहों पर सरकारी गुंडे उनका क़त्ल कर रहे हैं। भ्रष्टाचार, डर और गरीबी तीनों अपने चरम पर है।
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