Tuesday, April 28, 2009

“सारे पत्रकार दलाल बन गए हैं”

((सत्ता का आतंक क्या होता ये जानना है तो आप छत्तीसगढ़ जाइये। वहां सरकार और कंपनियों की तानाशाही चल रही है। इस तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की जगह मीडिया ख़ामोश है। वजह सिर्फ़ एक। अगर सरकार के ख़िलाफ़ कुछ लिखा तो विज्ञापन बंद। कंपनियों के ख़िलाफ़ कुछ भी लिखा तो वो सत्ता को चुनौती समझी जाएगी। डर के मारे मीडिया चुप है। नतीजतन सरकारी तंत्र, सलवा जुडुम जैसी उसकी बनाई संस्थाएं और कंपनियां खुलेआम मानवाधिकारों का हनन कर रही हैं। लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं। इस ख़तरनाक साज़िश से पर्दा उठा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी। उनका लेख हमनेhttp://infochangeindia.org/Agenda/Reporting-conflict/The-art-of-not-writing.html से साभार लिया है। इसकी पहली किस्त हम आज छाप रहे हैं। आप भी पढ़िये और सोचिये कि मीडिया की ख़ामोशी का अंजाम कितना ख़तरनाक हो सकता है।))

मैं, भैरमगढ़ में सलवा जुडुम की रैली को कवर करने गया था। दक्षिणी छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में भैरमगढ़ एक छोटा कस्बा है। वो इलाका जहां सरकार माओवादियों के ख़िलाफ़ ख़ूनी लड़ाई लड़ रही है। सरकार के मुताबिक, सलवा जुडुम ऐसा जन आंदोलन है जो माओवादियों के ख़िलाफ़ खुद ब खुद उत्पन्न हुआ है। जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे ऐसा क्रूर आतंकी संगठन मानते हैं जिसे सरकार ने तैयार किया है।

रैली को जंगल में, आदिवासी इलाकों के उन संकरे रास्तों से गुजरना था जहां चारपहिया गाड़ी नहीं जा सकती थी। इसलिए सलवा जुडुम के नेता महेंद्र कर्मा ने मेरे लिए मोटरसाइकिल की सवारी का बंदोबस्त कर दिया। रास्ते में बातचीत के क्रम में पता चला कि मोटरसाइकिल चलाने वाला स्थानीय पत्रकार है। उससे हुए बातचीत ने मुझे स्थानीय पत्रकारिता को समझने में काफी मदद की।

वो पत्रकार छत्तीसगढ़ के एक बड़े अख़बार के लिए काम करता है। “आपको कितनी तनख़्वाह मिलती है” मैंने पूछा। “मुझे वेतन नहीं मिलता” उसने जवाब दिया। “ओह, तो आपकी रोजीरोटी कैसे चलती है?” उसने जवाब दिया “कुछ नहीं लिख कर।
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