Sunday, May 31, 2009

खंड खंड ख़बरों का पाखंड

एनडीटीवी क्या है? कुछ दिन पहले तक लोग इस सवाल का जवाब देते थे – देश का सबसे सम्मानित मीडिया समूह। ऐसा समूह जिसे ख़बर देने का सलीका आता है। जिसका भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, ज्योतिष, सेक्स, अजब-गजब और साह-बहू और साज़िश में ज़रा भी यकीन नहीं। इसके अलावा एनडीटीवी को सबसे अधिक मानवीय संस्थान भी कहा जाता था। ये सभी बातें इसे एक शानदार ब्रांड के तौर पर स्थापित करती थीं। समूह के मालिकान भी ये कहते नहीं थकते थे कि वो इसे भारत का बीबीसी बनाना चाहते हैं और उसके लिए हर क़ीमत चुकाने को तैयार हैं। वो ताल ठोक कर ये दावा भी करते थे कि उन्हें टीआरपी से कोई लेना देना नहीं।

लेकिन एक मंदी आई और सारे दावे एक झटके में हवा हो गए।...... (READ MORE) .........

Wednesday, May 27, 2009

शर्म इनको मगर नहीं आती

पंद्रह साल की एक लड़की को पता चलता है कि वो मां बनने वाली है। लड़की ये बात अपनी मां को बताती है। मां पूछती है, बच्चे का पिता कौन है। लड़की अपने तेरह साल के नन्हे प्रेमी का नाम लेती है। नन्हा प्रेमी भी लड़की की हां में हां मिलाता है। तेरह साल का प्रेमी बाप बनने को तैयार है, भले ही वो इसका मतलब नहीं जानता। जल्द ही पंद्रह साल की ये बच्ची, एक बच्ची की मां बन जाती है। नन्हे प्रेमी का पिता मीडिया के आगे दावा करता है कि उसका बेटा ब्रिटेन का सबसे कमउम्र बाप है।

ब्रिटेन का मीडिया इस खबर को हाथोंहाथ लेता है। मशहूर टेबलॉयड द सन की कवर स्टोरी बन जाती है ये खबर। पंद्रह साल की मां, उसकी नवजात बेटी और उसके तेरह साल के कथित पिता की तस्वीरें छपती हैं, उनके इंटरव्यू छपते हैं। बाकी तमाम अखबार भी इस खबर को बेचने की होड़ में कूद पड़ते हैं। टीवी चैनल, रेडियो स्टेशन भी पीछे नहीं हैं। शक ये भी है कि लड़के के पिता और लड़की की मां को इन खबरों और साक्षात्कारों के एवज में मोटी रकम.... ((READ MORE))

Monday, May 25, 2009

डॉ बिनायक सेन को ज़मानत मिली

सुप्रीम कोर्ट ने आज मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ बिनायक सेन को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि डॉ सेन को निजी मुचलके के आधार पर स्थानीय अदालत से ज़मानत दे दी जाए।

डॉ बिनायक सेन 14 मई 2007 से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की जेल में बंद हैं। सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद अब कल यानी मंगलवार तक बिनायक सेन को रिहा किए जाने की उम्मीद की जा रही है।

छत्तीसगढ़ पुलिस उन पर माओवादियों से रिश्ते रखने और जेल में बंद नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल के लिए संदेशवाहक का काम करने का आरोप लगाती रही है। लेकिन भारत ही नहीं, दुनिया भर के मानवाधिकार संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सेन पर लगे आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए उनकी गिरफ्तारी का कड़ा विरोध करते रहे हैं। डॉ सेन के समर्थकों का कहना है कि वे एक ऊंचे दर्जे के बाल-चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, जिन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया है। यहां तक कि दुनिया के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने भी डॉ बिनायक सेन को रिहा करने की अपील की थी। इन कोशिशों का तो छत्तीसगढ़ सरकार पर ....... ((READ MORE))....

Thursday, May 21, 2009

मेरा चैनल, तेरे चैनल से बेहतर

न्यूज़ चैनल खुद को बड़ा साबित करने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। हर हफ़्ते जारी होने वाली टीआरपी ही एकमात्र पैमाना नहीं है। बल्कि अब सबके पास अपनी “टीआरपी” है। इससे पहले हर कोई टैम की तरफ से जारी होने वाली रेटिंग के किसी खास पहलू को पकड़ कर खुद को नंबर वन साबित करने की कोशिश करता था। लेकिन अब तो सर्वे के जरिये भी दावा किया जा रहा है कि जनता उन्हें दूसरों से ज्यादा पसंद करती है। इस दौड़ में हिंदी और अंग्रेजी, सभी न्यूज़ चैनलों ..... ((READ MORE))

Wednesday, May 20, 2009

एक राहुल, सौ सलाहकार

मीडिया पहले ही यूपीए की जीत को कांग्रेस की जीत और कांग्रेस की जीत को राहुल गांधी का चमत्कार साबित कर चुका है। अब मीडिया में नई बहस चल रही है। बहस ये कि आखिर आखिर राहुल गांधी मंत्री बनेंगे या नहीं? अगर हां, तो कौन सा मंत्रालय लेंगे। राहुल के गुणगान में जुटे पत्रकारों के लिए ये बड़ा सवाल है। इसका जवाब हर कोई अपने-अपने तरीके से दे रहा है। कुछ पत्रकार तो राहुल के लिए मंत्रालय चुनने...... ((READ MORE))

Tuesday, May 19, 2009

"हत्यारों का संहार"



((प्रभाकरण की मौत के साथ एक अध्याय का अंत हो गया। किसी ने खूब कहा है कि मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी हर शख़्स के सामने दो रास्ते होते हैं। उनमें से एक सही होता है और दूसरा ग़लत। लेकिन सही और ग़लत का फ़ैसला हर शख़्स अपने हिसाब से करता है। वेलुपिल्लई प्रभाकरण ने भी अपने हिसाब से रास्ता चुना और सही और ग़लत का फ़ैसला किया। जो भी उसके फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ उसे मार दिया गया। हिंसा की राह पर चलते हुए प्रभाकरण आज खुद मारा गया है। श्रीलंकाई मीडिया, तमिल मीडिया और पश्चिमी देशों का मीडिया उसकी मौत को अपने-अपने चश्मे से देख रहा है। उनमें से कुछ पर आप भी एक नज़र डालिये।))

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(रिपोर्ट)“जाबांज सुरक्षाबलों ने एलटीटीई के कब्जे से भूमि के आखिरी इंच को भी आज़ाद करा लिया है। इसके साथ ही एलटीटीई के सभी शीर्ष नेताओं का ख़ात्मा हो गया है। …. प्रभाकरण के बड़े बेटे चार्ल्स एंथनी, खुफिया शाखा के नेता पोट्टू अम्मान, सैन्य सिपहसालार जेयम और लक्ष्मण, राजनीतिक साखा के मुखिया नाडेसन, ब्लैक टाइगर लीडर रतनाम मास्टर और एलटीटीई पुलिस चीफ इलांगो के शवों की पहचान हो गई है”।





विस्तार से पढ़ें ((READ IN DETAIL))

Monday, May 18, 2009

चौकीदार का चोर होना

((हिंदी के सबसे बड़े और सम्मानित पत्रकार प्रभाष जोशी हाल में संपन्न आम चुनावों के दौरान खबरों की खरीद-फऱोख्त के शर्मनाक धंधे के खिलाफ खम ठोककर मैदान में उतर पड़े हैं। उन्होंने मांग की है कि खबरें बेचकर पत्रकारिता की पवित्रता को दागदार करने वाले अखबारों का रजिस्ट्रेशन रद्द होना चाहिए। अगर ज़रूरी हो तो इसके लिए नया कानून भी बनाया जाना चाहिए। इस विषय पर उनका पिछला लेख “खबरों के पैकेज का काला धंधा” आप यहां पहले पढ़ चुके हैं। जनसत्ता के अपने मशहूर कॉलम “कागद कारे” में इस बार भी प्रभाष जी ने इसी मुद्दे पर कलम उठायी है। पढ़िए और जनतंत्र के चौथे स्तंभ को बचाने की इस मुहिम में उनका साथ दीजिए।))
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चुनाव की खबरों को बेचने का काला धंधा ऐसा नहीं कि अखबारों ने कोई छुपाते और लजाते हुए किया हो। छोटे-मोटे स्ट्रिंगर से लेकर संपादक और मालिक तक और उधर छुटभैये कार्यकर्ता से लेकर उम्मीदवार, उसकी पार्टी और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक सब जानते थे कि अखबारों में चुनाव की खबरें पैसे और वह भी काले पैसे से छप रही हैं। राजनीतिक लोगों की बेशर्मी तो फिर भी समझी जा सकती है, क्योंकि उनमें से अधिकतर अखबारों में छपे को अपना प्रचार मानकर ही चलते हैं। लेकिन अखबारों – खासकर हिंदी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक, जो अपनी गिनती दुनिया के सबसे बड़े अखबारों में और सबसे ज्यादा पाठकों वाले अखबारों में करवाते हैं और अपनी पत्रकारिता की तारीफ करते खुद ही नहीं थकते – वे भी खबरों की अपनी पवित्र जगह ....... ((READ MORE))

Sunday, May 17, 2009

विदेशी मीडिया की नज़र में यूपीए की जीत

भारत में यूपीए की जीत को विदेशी मीडिया तीन मुख्य पहलुओं को ध्यान में रख कर देख रहा है। पहला कि इस जीत से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक स्थिर सरकार होगी। गार्डियन ने लिखा है कि कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए को भारी मतों से दोबारा चुन लिया गया है। चौंकाने वाले नतीजों में जनता ने मनमोहन सिंह सरकार में पूरी तरह भरोसा जता कर राजनीतिक स्थिरता के दौर की शुरुआत कर दी है। न्यू यॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि मृदुभाषी आर्थिक सुधारक मनमोहन सिंह को चुन कर जनता ने स्थिर सरकार के लिए रास्ता साफ कर दिया है। .... (READ MORE)

एक्जिट पोल की खुल गयी पोल!

एक्जिट पोल का खेल एक बार फिर से फेल हो गया है। तमाम न्यूज़ चैनल-अखबार और उनके लिए एक्ज़िट पोल की दुकान चलाने वाले दुकानदार, अपने-अपने तुक्के भिड़ाते रहे। “सेफोलॉजिस्ट” उलझाने वाले आंकड़ों को सुलझाने का दंभ पाले मुस्कराते रहे।

नेता और पत्रकार चैनलों के स्टूडियो में बैठकर शब्दों का मायाजाल बुनते रहे। चुनाव के हर मौसम में घास-पात की तरह उग आने वाले राजनीतिक विश्लेषक अजीबोग़रीब दलीलों की जुगाली करते रहे। किसी को जिताते, किसी को हराते रहे। लेकिन जब भारत की आम जनता ने अपना फैसला सुनाया, तो सारे अनुमान और “प्रोजेक्शन” धरे के धरे रह गए। तमाम दलीलें थोथी साबित हो गयीं। भारत के आम मतदाता ने साबित कर दिया कि महानगरों के आरामदेह केबिन में बैठकर बड़ी-बड़ी डींगें मारने वाले इन लोगों को राजनीति की असली ज़मीन पर क्या हो रहा है, इसका कोई अंदाज़ा नहीं है।

ज़्यादातर एक्जिट पोल यूपीए और एनडीए के बीच कांटे की टक्कर होने के दावे कर ..... ((READ MORE))

Saturday, May 16, 2009

पत्रकारों ने ली राहत की सांस

जनता के फैसले से पत्रकारों ने भी राहत की सांस ली है। बीते दो महीने उनके लिए काफी मुश्किल भरे रहे हैं। चुनाव और आईपीएल के कारण उन्हें दिन रात मेहनत करनी पड़ी।
पहले तो इन्हें “बहुमत” समझाइये
हिंदी चैनलों में अच्छे ऐंकरों की भारी किल्लत है। किसी भी चैनल के पास ऐसे ऐंकरों की संख्या बहुत कम है जो संवेदनशील मौकों पर हालात संभाल सकें। यही वजह है कि जब तक चकल्लस होती रहे तब तक तो ठीक है। लेकिन जब भी चुनाव जैसे मौके आते हैं चैनलों की पोल खुल जाती है। अब आज (शनिवार, 16 मई) की ही बात लीजिये। देश के नंबर वन चैनल की दो ऐंकरों ने कई बार कहा कि यूपीए को भारी बहुमत मिल गया है। अरे भई, कोई उन्हें बहुमत का मतलब तो समझाए।
कुछ पत्रकारों को बीते एक महीने में एक भी छुट्टी नहीं मिली। तुलनात्मक लिहाज से देखें तो अख़बारों के रिपोर्टरों को तो थोड़ा वक़्त मिल जाता था, लेकिन टीवी के पत्रकारों का हाल बुरा था। सुबह-सुबह 7 बजे से ओबी वैन के सामने माइक थामे खड़े रहने की मजबूरी और देर रात तक सियासी हलचल को कैमरे में कैद करने की जिम्मेदारी। रिपोर्टर तो रिपोर्टर डेस्क पर तैनात लोगों की जान भी सांसत में थी। लेकिन जनता के फ़ैसले के बाद सब राहत की सांस ले रहे हैं। उन्हें डर था कि फैसला उलझा हुआ मिला तो अगले एक-दो हफ्ते भी फुरसत नहीं मिलेगी। कुछ चैनलों में आधिकारिक तौर पर अगले दो हफ्तों तक छुट्टियां रद्द कर दी गईं थी। लेकिन अब वहां के कर्मचारियों को उम्मीद है कि ये फैसला वापस ले लिया जाएगा।..... ((READ MORE))

विकास के लिए वोट, नफ़रत पर चोट

ये पब्लिक है सब जानती है। बात सही है। पब्लिक की लाठी में आवाज़ नहीं है, मगर चोट बड़ी तगड़ी है। एक साथ कई धुरंधर साफ हो गए। कई एजेंटों का डब्बा गोल हो गया। अब न मोल तोल। न जोड़ तोड़। जनता ने सीधे-सीधे कह दिया है कि वोट उसी को जो शांति बनाए रखे और विकास को तरजीह दे। बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, आंध्र प्रदेश सब जगह कुछ यही आदेश मिला है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है वहां भी। जहां भारतीय जनता पार्टी या फिर क्षेत्रीय दलों की सरकार है वहां भी। जनता बस यही कह रही है कि हमें चैन से जीने दो। सड़क दो, रोजगार दो, शिक्षा दो, स्वास्थ दो। नफ़रत, हिंसा और अपराध नहीं।
शुरुआत बिहार से करते हैं। वहां जाति की राजनीति होती है। इस बार भी हुई है। लेकिन नतीजों से सकारात्मक बदलाव के संकेत भी मिले हैं। पहली बात, वहां लोगों ने लंबे समय बाद जाति से ऊपर उठ कर मतदान किया है। लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को ब्लैकमेलिंग का मौका नहीं दिया (ब्लैकमेलिंग का मौका अमर सिंह, अजित सिंह, ओमप्रकाश चौटाला, देवेगौड़ा, चंद्रशेखर राव जैसों को भी नहीं मिला है। एक साथ सबकी दुकान बंद हो गई है।) दूसरी बात, कुछ मुस्लिम वोट भी विकास के नाम पर ....... (READ MORE)

Thursday, May 14, 2009

“पत्रकार दिखे तो गोली मार देना”

((कुछ दिन पहले जनतंत्र पर आपने वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी जी के लेख का पहला हिस्सा पढ़ा। “सारे पत्रकार दलाल बन गए हैं” में उन्होंने छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के सच को बयां किया। आज उसी लेख का दूसरा हिस्सा। इसे पढ़ने पर आपको पता चलेगा कि छत्तीसगढ़ में किस तरह ईमानदार पत्रकारों पर जुल्म हो रहा है। जो बिकने और झुकने से इनकार करता है उसे साज़िश के तहत फंसा दिया जाता है।))

द इंडियन एक्सप्रेस ने फ्रंट पेज पर एक ख़बर छापी। नक्सलियों ने तीन किसानों की इसलिए हत्या कर दी कि उन्होंने खेती पर नक्सलियों के प्रतिबंध को मानने से इनकार कर दिया था।
मैंने कभी भी इस तरह के प्रतिबंध की बात नहीं सुनी थी, इसलिए ख़बर पढ़ने के बाद मैंने कुछ फोन किये। मुझे बताया गया कि नक्सलियों ने तीन किसानों की हत्या जरूर की है, लेकिन इस हत्याकांड का खेती से कोई रिश्ता नहीं है। असलियत तो ये है कि चिंतागुफा गांव में धड़ल्ले से खेती हो रही है। चिंतागुफा गांव के पूर्व सरपंच ने बताया कि नक्सलियों ने तीनों किसानों को पुलिस का मुखबिर होने के शक में मार डाला।
अगर, मैं, दिल्ली में होते हुए ख़बर को क्रॉसचेक करने के लिए फोन पर चिंतागुफा के लोगों से बात कर सकता हूं तो रायपुर के पत्रकार ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
मैंने, स्थानीय अख़बार में अपने कॉलम में इस वाकये का जिक्र किया। लेकिन किसी ने उस पर गौर नहीं किया। अगले दिन द टाइम्स ऑफ इंडिया ने नक्सली फरमान नहीं मानने के कारण किसानों पर हुए हमले की वही पुरानी ख़बर छाप दी। ....... ((READ MORE))

Wednesday, May 13, 2009

ख़बरों के पैकेज का काला धंधा

ख़बरों का सौदा होता है। ये हम ही नहीं, हिंदी के सबसे बड़े पत्रकार प्रभाष जोशी भी कह रहे हैं। 10 मई को “जनसत्ता” में उन्होंने इस डरावने सच को बयां किया। उनके लेख से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज प्रेस कितना स्वतंत्र है और कितना बिकाऊ। ये भी अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस देश में अख़बार और न्यूज़ चैनल पैसों के लिए ईमान-धर्म बेच चुके हों वहां आम आदमी की आवाज़ सत्ता के गलियारों तक कैसे पहुंचेगी? प्रभाष जी का ये लेख आप भी पढ़िये और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मौत पर दो मिनट का मौन रखिये।
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उनका कुछ नाम भी है और काम भी। बरसों से हमारे दोस्त हैं। लेखक और समाजसेवी पिता के कारण बचपन से पत्रकारिता करने लगे। समाज को बदलने और बनाने की तलवार मान कर।........
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Monday, May 11, 2009

पूरे देश को “पप्पू” बना रहा है मीडिया

इस चुनाव में एक खास बात रही। मतदान को लेकर नेताओं और सियासी दलों से कहीं ज्यादा उत्साह मीडिया में नज़र आया। सभी चैनलों पर और अख़बारों में दिग्गज पत्रकार देश की जनता से वोट डालने की अपील करते नज़र आए। वोटरों को रिझाने के लिए हर तरकीब आजमाते दिखे। निजी कंपनियों के साथ मिल कर कुछ मीडिया संस्थानों ने वोटरों को ललकारा तो कुछ ने वोट ना देने का फैसला करने वालों का मजाक भी उड़ाया। ऐसा लग रहा था जैसे चुनाव आयोग ने इस बार मीडिया को अपना एजेंट नियुक्त कर लिया हो। सवाल उठता है कि क्या मतदान कराना मीडिया की जिम्मेदारी है? और क्या वोट नहीं देने वालों को मूर्ख (पप्पू) बताना मीडिया का हक़ है? .......................... ((READ MORE))

Saturday, May 9, 2009

श्रीलंका में चैनल-4 की टीम गिरफ़्तार

ब्रिटेन के “चैनल-4” की न्यूज़ टीम को श्रीलंका में गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद पूरी टीम को श्रीलंका से बाहर जाने का हुक्म दे दिया गया है। राजपक्षे सरकार ने चैनल-4 पर प्रसारित एक ख़बर के बाद उसकी टीम को ये फरमान सुनाया है। चैनल-4 की ख़बर में तमिल शरणार्थी शिविरों में हो रहे जुल्म का ब्योरा दिया गया था।

चैनल-4 की वेबसाइट पर छपी ख़बर के मुताबिक रिपोर्टर निक पाटॉन, कैमरामैन मैट जैस्पर और प्रोड्यूसर बेसी ड्यू की टीम 19 अप्रैल से श्रीलंका के युद्धक्षेत्र से ख़बरें भेज रही थी। 5 मई को इस टीम ने तमिल शरणार्थी शिविरों की बदहाली और श्रीलंकाई सेना के जुल्म पर रिपोर्ट भेजी। .......

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Friday, May 8, 2009

हिंदी में छपेगी ‘टॉप गेयर’

भारत में टॉप गेयर, हैलो और ग्रेज़िया जैसी पत्रिकाएं हिंदी में भी पढ़ने को मिल सकती हैं। गार्डियन में छपी ख़बर के मुताबिक वर्ल्डवाइड मीडिया अब इन पत्रिकाओं के भारतीय संस्करण को हिंदी में छापने का मन बना रहा है। इस कंपनी में बीबीसी वर्ल्डवाइड और टाइम्स ऑफ इंडिया की हिस्सेदारी है।

लंदन में कंपनी के सीईओ तरुण राय ने कहा कि भारतीय मैगजीन इंडस्ट्री में विस्तार की काफी संभावना है। अभी तक गैर अंग्रेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को कुल विज्ञापन का सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा ही मिलता है। विज्ञापनों में गैरअंग्रेजी भाषाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है, बशर्ते उस दिशा में काम किया जाए। टॉप गेयर ऑटो इंडस्ट्री पर अंग्रेजी भाषा की प्रतिष्ठित पत्रिका है। अपने टेलीविजन शो टॉप गेयर से प्रोत्साहित होकर बीबीसी ने ये पत्रिका 1993 में शुरू की थी। तब से ये पत्रिका हर महीने छपती है और भारत में इसका लाइसेंस टॉइम्स ऑफ इंडिया के पास है। हैलो लाइफ स्टाइल मैगजीन है, जिसमें सेलिब्रिटीज की जिंदगी से जुड़ी ख़बरें और गपशप पढ़ने को मिलती है। इसे भी 1993 में ही लॉन्च किया गया था। आज ये पत्रिका दुनिया के करीब 10 देशों में छापी जाती है। ग्रेजिया भी फैशन इंडस्ट्री से जुड़ी चर्चित पत्रिका है। 1938 में इटली में इस पत्रिका का जन्म हुआ। धीऱे-धीरे ग्रेजिया फैशन को लेकर जागरूक रहने वाली महिलाओं में काफी लोकप्रिय हो गई। कुछ समय पहले वर्ल्ड वाइड मीडिया ने इसका भारतीय संस्करण शुरू किया।

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जागरण और टीओआई नंबर वन

इंडियन रीडरशिप सर्वे (आर-1, 2009) के आंकड़े आ गए हैं। इसमें कोई उलटफेर नहीं है। मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) के ताजा सर्वे में इस बार भी हिंदी अख़बारों में दैनिक जागरण और अंग्रेजी में टाइम्स ऑफ इंडिया सबसे आगे हैं।

दैनिक जागरण के पाठकों की संख्या 54,583,000 है जबकि 33,500,000 पाठकों के साथ दूसरे नंबर पर है दैनिक भास्कर। अमर उजाला 28,674,000 हिंदुस्तान 26,769,000 और राजस्थान पत्रिका 14,051,000 पाठकों के साथ क्रमश: तीसरे, चौथे और पांचवे नंबर पर हैं। पंजाब केसरी (10,645,000), आज (5,905,000), नवभारत टाइम्स (5,402,000), प्रभात ख़बर (4,671,000) और नवभारत (4,477,000) क्रमश: छठे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें स्थान पर हैं।

अंग्रेजी में टाइम्स ऑफ इंडिया के पाठकों की संख्या सबसे अधिक 13,347,000 है। दूसरे नंबर पर 6,341,000 पाठकों के साथ हिंदुस्तान टाइम्स है। जबकि द हिंदू (5,373,000), द टेलीग्राफ (2,818,000), डेक्कन क्रॉनिकल (2,768,000) क्रमश: तीसरे, चौथे और पांचवे नंबर पर हैं।

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Thursday, May 7, 2009

खिसियाये लालू, मीडिया पर भड़के

खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे – कहावत बहुत पुरानी है लेकिन राजनीति के मैदान में ये कहावत अक्सर बेहद सटीक बैठती है। आप चाहें, तो इसमें थोड़ा-फेरबदल करके कह सकते हैं – खिसियाया नेता, मीडिया पर भड़के। आज इस कहावत को चरितार्थ करने का काम किया है रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने। वाकया कुछ इस तरह है – लालू पटना साहिब संसदीय सीट के लिए मतदान करने अपने परिवार के साथ पटना वेटनरी कॉलेज के मतदान केंद्र पहुंचे। वो वोटिंग करने पोलिंग बूथ के अंदर घुसे तो कुछ मीडियाकर्मी भी कैमरा लेकर अंदर चले गए। इस पर लालू ने न सिर्फ आपा खो दिया, बल्कि एक कैमरामैन को अपने हाथों से धकेल कर बाहर कर दिया। लालू को इतने से ही संतोष नहीं हुआ, तो बाहर आकर भी पत्रकारों को जमकर खरी-खोटी सुनाई।

पिछले कुछ दिनों से लालू लगातार मीडिया से नाराज चल रहे हैं। उनको शिकायत है कि मीडिया उनके खिलाफ साजिश कर रहा है। हम ये नहीं कहते कि मीडिया पक्षपात नहीं करता। लेकिन बरसों से मीडिया के चहेते नेता रहे लालू के मुंह से ये आरोप सुनना कुछ अज़ीब ज़रूर लगता है।

लालू आज जिस कैमरे को देखकर भड़क रहे हैं, वो बरसों तक उनका मुरीद रहा है। न्यूज़ चैनलों के इन्हीं कैमरों की बदौलत वो पिछले कई बरसों के दौरान टीवी पर सबसे ज़्यादा दिखाई देने वाले नेताओं में शामिल रहे हैं। भारतीय रेल की कायापलट करने वाले जादूगर से लेकर नये मैनेजमेंट गुरु तक जाने कितने ही ख़िताब मीडिया उन्हें देता रहा है। लेकिन सब दिन एक समान नहीं होते। जिन दिनों लालू आत्मविश्वास से भरे नज़र आते थे, तब वो मीडिया की आलोचनाओं को भी हंसी-हंसी में उड़ा देते थे और अक्सर अपनी हाज़िरजवाबी के लिए वाहवाही भी लूट लेते थे। लेकिन लगता है बिहार की राजनीतिक ज़मीन पर शिकस्त की आशंका ने उन्हें अंदर से हिला कर रख दिया है। तभी वो उस कैमरे को देखकर बौखलाने लगे हैं, जो कामयाबी भरे दिनों में उनका चहेता साथी रहा है।

कैमरे पर निकलती इस खीझ के पीछे का असली दर्द शायद कुछ और है। लालू को ये बर्दाश्त नहीं हो रहा कि मीडिया अब उन्हें नहीं, बल्कि नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति की धुरी मानने लगा है। लालू को समझना चाहिए कि उन्हें बिहार की राजनीति के केंद्र से मीडिया ने नहीं, खुद बिहार की जनता ने किनारे किया है। वैसे इन दिनों लालू की बौखलाहट कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है, तो शायद इसलिए भी कि उनकी पुरानी दोस्त कांग्रेस भी अब उनकी नहीं नीतीश कुमार की तारीफ कर रही है। नीतीश की तारीफ में राहुल गांधी का ताज़ा बयान शायद उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है। और बदलते हालात से उपजा यही गुस्सा वो मीडिया पर निकाल रहे हैं।

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Wednesday, May 6, 2009

"वांट प्रेस कवरेज, गिव मी सम मनी"

हमारे अख़बार और संपादक देश का नाम कितना रोशन कर रहे हैं वो वॉल स्ट्रीट जरनल में छपी एक रिपोर्ट से जाहिर होता है। इस रिपोर्ट की हेडिंग है “वांट प्रेस कवरेज, गिव मी सम मनी” यानी “प्रेस कवरेज चाहते हो तो मुझे कुछ पैसे दो”. इसे लिखा है दिल्ली में मौजूद उसके चीफ ऑफ ब्यूरो पॉल बैकेट ने। रिपोर्ट की हेडिंग से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इसमें भारतीय मीडिया के किस चेहरे का ब्योरा होगा?

रिपोर्ट में चंडीगढ़ से किस्मत आजमा रहे निर्दलीय उम्मीदवार अजय गोयल का जिक्र है। अजय गोयल का कहना है कि कम से कम दस अख़बारों के दलालों ने उनसे कवरेज के लिए पैसे मांगे हैं। पैसे नहीं देने पर उनके बारे में एक भी ख़बर अख़बारों ने नहीं छापी है। अजय गोयल पूछ रहे हैं कि जहां मीडिया में दलाली इस कदर हावी है तो फिर जनता के पढ़े लिखे होने का क्या फायदा? जब लोगों को सही और सच्ची जानकारी नहीं मिलेगी तो फिर वो सही फैसला कैसे करेंगे? सवाल जायज हैं और आरोप भी सही। अजय गोयल पहले और आखिरी शख़्स नहीं हैं जिसने मीडिया पर दलाली का आरोप लगाया है। उनसे पहले कई और नेता ये आरोप लगा चुके हैं। रही सही कसर इस रिपोर्ट ने पूरी कर दी है। भारतीय मीडिया का ये घिनौना चेहरा अब पूरी दुनिया के सामने है।

भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। उसे ये स्थान संविधान ने नहीं दिया है। संविधान के मुताबिक तो लोकतंत्र के सिर्फ तीन ही स्तंभ हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। अगर प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने का गौरव मिला तो ये गौरव उसने काम से हासिल किया था। उसका कर्म और धर्म तो तीनों स्तंभों के चाल-चलन और चरित्र पर नज़र रखना है। ताकि जनता को वक़्त रहते आगाह किया जा सके कि उसके साथ कहां और कौन विश्वासघात कर रहा है। लेकिन अब लगता है कि मीडिया का कर्म और धर्म दलाली के सिवाय कुछ नहीं। आज उसमें बाकी तीनों स्तंभों से कहीं ज्यादा गंदगी है। और ये गंदगी सिर्फ अख़बारों में नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर के न्यूज चैनलों में भी है।.....

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आज़ादी या मुनाफा?

ताइवान सरकार ने अपने देश में प्रेस की आज़ादी में गिरावट पर चिंता जताई है। उसने वादा किया है कि वो हालात सुधारने की पूरी कोशिश करेगी। ताइवान सरकार के सूचना मंत्री ने ये बात अंतरराष्ट्रीय संस्था फ्रीडम हाउस की ताज़ा रिपोर्ट सामने आने के बाद कही है। दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी का हाल बताने वाली इस रिपोर्ट की जानकारी हम आपको पहले भी दे चुके हैं। लेकिन आज हम दोबारा इस रिपोर्ट का ज़िक्र इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि ताइवान के सूचना मंत्री का बयान आया है। ये खबर हम आप तक इसलिए पहुंचा रहे हैं ताकि आप भी हमारी तरह खुद से ये सवाल करें कि आखिर हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं होता? प्रेस की आज़ादी में कटौती की जैसी परवाह ताइवान में दिखाई देती है, वैसी हमारे यहां क्यों नहीं है? जबकि हमारे यहां मीडिया की आज़ादी का हाल ताइवान से कहीं बुरा है।

फ्रीडम हाउस की ताज़ा रिपोर्ट ने ताइवान को दुनिया के 195 मुल्कों में 43वें नंबर पर रखा है। जबकि इसी रिपोर्ट में हमारा नंबर 76वां है। ताइवान पिछली बार की तरह ही उन देशों में शामिल है, जहां प्रेस तुलनात्मक रूप से आज़ाद है। जबकि भारत को उन देशों की सूची में जगह मिली है, जहां प्रेस आंशिक तौर पर ही आज़ाद कहा जा सकता है। हमसे बेहतर स्थिति में होते हुए भी ताइवान परेशान है, क्योंकि वो 2008 की इसी रिपोर्ट में 32वें नंबर पर था। ताइवान को इस साल 11 पायदान नीचे खिसककर 43वें नंबर पर आना अखर रहा है। लेकिन हम 76वें नंबर पर रहकर भी बेपरवाह हैं। ....

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Tuesday, May 5, 2009

ये मंदी में मालामाल कौन?

ब्रिटेन में एक नई बहस छिड़ी हुई है। ये बहस शुरू हुई है कंज़रवेटिव पार्टी के नये प्रस्ताव पर। ब्रिटेन की प्रमुख विपक्षी पार्टी का कहना है कि जनता के पैसे से चलने वाली मीडिया संस्थाओं के उन अफसरों के नाम सार्वजनिक होने चाहिए, जो मंदी के इस दौर में भी 1,50,000 पाउंड से ज्यादा सालाना तनख्वाह पा रहे हैं। मीडिया संस्थाओं की इस लिस्ट में बीबीसी और चैनल 4 का नाम भी शामिल है। कंज़रवेटिव पार्टी के प्रवक्ता का कहना है कि “देखते हैं कि कौन-कौन से अधिकारी टैक्स भरने वाली जनता की कीमत पर अमीर हो रहे हैं, ये भी कि वो इस काबिल हैं भी या नहीं”। ऐसा सिर्फ ब्रिटेन में ही क्यों, भारत में भी होना चाहिए और सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को ही नहीं बल्कि स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड कंपनियों को भी इस बहस में शामिल किया जाना चाहिए। सभी मीडिया संस्थानों को इस बहस के दायरे में लाना चाहिए। इन मीडिया संस्थानों को मिलने वाले विज्ञापनों का एक बड़ा हिस्सा सरकारी होता है।

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Monday, May 4, 2009

“अख़बार में नहीं लगाऊंगा पैसा”

दुनिया के सबसे अमीर कारोबारियों में से एक वॉरेन बफेट ने कहा है कि अब वो न्यूज़पेपर इंडस्ट्री में एक पैसा भी नहीं लगाएंगे। उनके मुताबिक अमेरिका में अब अख़बारों का भविष्य अच्छा नहीं है। ऐसे में इसमें पैसा लगाना समझदारी नहीं। बर्कशायर हैथवे शेयरहोल्डर्स की बैठक में बफेट ने ये बात कही। बफेट इस कंपनी के सबसे बड़े शेयरहोल्डर और सीईओ हैं।

वॉरेन बफेट का कहना है कि ऐसा हो सकता है कि भविष्य में अख़बारों का घाटा कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जाए। इसलिए उनकी कंपनी किसी भी अख़बार को खरीदने का इरादा नहीं रखती है। बफेट का ये भी मानना है कि एक समय था जब अख़बार हर किसी के लिए जरूरी थे। वो समय अब ख़त्म हो चुका है। आज के आधुनिक युग में इंटरनेट ने अख़बारों की जगह हासिल कर ली है। यही वजह है कि अख़बारों को मिलने वाले विज्ञापन कम हो रहे हैं, जबकि इंटरनेट पर विज्ञापन बढ़ रहे हैं। बफेट ने अपना करियर अख़बार बांटने से शुरू किया था। बाद में वो दुनिया के सबसे बड़े निवेशक बने। उन्होंने 1970 में बफेलो न्यूज़ को खरीदा था और आज भी उसके मालिक हैं। इसके अलावा वॉशिंगटन पोस्ट में भी उनकी बड़ी हिस्सेदारी है। वॉशिंगटन पोस्ट इस साल घाटे में चला गया है। पहली तिमाही के नतीजों के मुताबिक अख़बार को करीब 2 करोड़ डॉलर (लगभग 100 करोड़ रुपये) का नुकसान हुआ है। एक साल के भीतर ये दूसरी बार है जब अख़बार घाटे में है।

यही नहीं अमेरिकी सर्कुलेशन ऑडिट ब्यूरो के मुताबिक वहां के 25 सबसे बड़े अख़बारों में सिर्फ एक को छोड़ कर सबका सर्कुलेशन बड़े पैमाने पर घटा है। इस सूची में सबसे ऊपर है द न्यूयॉर्क पोस्ट। उसके 20.6 फीसदी पाठकों ने साथ छोड़ दिया है। अगर सबसे अधिक बिकने वाले अख़बारों की बात करें तो यूएसए टुडे के पाठकों की संख्या में 7.5 फ़ीसदी कमी आई है। इसके उलट न्यूजपेपर वेबसाइट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। एक सर्वे के मुताबिक इस साल शुरुआती तीन महीनों में न्यूजपेपर वेबसाइट पढ़ने वालों की संख्या 10.5 फीसदी बढ़ी है।

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Saturday, May 2, 2009

धीरे-धीरे गुलाम होता प्रेस

इस साल प्रेस की स्वतंत्रता पर और अंकुश लग गया है। सीधे शब्दों में कहें तो प्रेस पिछले साल की तुलना में इस साल ज्यादा गुलाम है। अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक इस साल दो और देशों में प्रेस की आज़ादी छिन गई है।प्रीडम हाउस एक ऐसी संस्था है जिसे अमेरिकी सरकार और कुछ संगठन पैसा मुहैया कराते हैं। इसने 195 देशों में पत्रकारिता के हालात पर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 195 में सिर्फ 70 देशों में यानी विश्व के 36 फ़ीसदी हिस्से में ही प्रेस स्वतंत्र है। इन 70 देशों में दुनिया की 17 फ़ीसदी आबादी रहती है।

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Friday, May 1, 2009

बीते साल पाक में 15 पत्रकारों की हत्या

पाकिस्तान में पिछले साल मई से लेकर अब तक 15 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। इस्लामाबाद में मौजूद इंटरमीडिया नाम की संस्था ने ये आंकड़े जारी किये हैं। “स्टेट ऑफ मीडिया इन पाकिस्तान” यानी “पाकिस्तान में मीडिया की हालत” नाम से जारी रिपोर्ट में मीडिया और पत्रकारों पर हुए हमलों का ब्योरा है।
रिपोर्ट के मुताबिक ड्यूटी पर मारे गए इन 15 पत्रकारों में 5 की मौत आत्मघाती हमलों में हुई है। मारे गए पत्रकारों में 6 पंजाब, 5 उत्तरी पश्चिमी फ्रंटियर प्रॉविंस, 2 सिंध और 1-1 बलूचिस्तान और फाटा इलाके के थे।
इनके अलावा एक पत्रकार ने तनख्वाह नहीं मिलने के कारण आत्महत्या कर ली। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में अलग-अलग इलाकों में हुए हमलों में करीब 61 पत्रकार घायल हुए हैं। इनके अलावा डराने-धमकाने के 104 मामले भी दर्ज हुए हैं। कुल मिला कर, साल भर में किसी पत्रकार या फिर किसी मीडिया संस्थान पर हुई ज्यादती के 248 मामले दर्ज किये गए हैं। पत्रकारिता के लिहाज से पाकिस्तान का पंजाब सबसे अधिक ख़तरनाक है और दूसरे नंबर पर है इस्लामाबाद। इन दोनों जगहों पर पत्रकारों पर सबसे अधिक जुल्म हुआ है।
दो दिन बाद यानी 3 मई को इंटरनेशनल प्रेस फ्रीडम डे है। वो दिन दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी के लिए मनाया जाएगा। उससे ठीक पहले जारी हुई ये रिपोर्ट बताती है कि आज पत्रकार कितने मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं।

एनडीटीवी को 160.30 करोड़ का घाटा

एनडीटीवी ने वित्तीय वर्ष 2008-2009 के नतीजे घोषित कर दिये हैं। कंपनी को चौथी तिमाही में 160.30 करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुकसान हुआ है। साल की पहली तीन तिमाही में कंपनी को करीब 347 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। इस लिहाज से एनडीटीवी का ऑपरेशनल घाटा बढ़कर 500 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर गया है।

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