Friday, July 31, 2009

"हम पत्रकारों का सिर शर्म से झुका जा रहा है"

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दफ़्तर में पत्रकारों के बीच मारपीट से वहां का मीडिया जगत हैरान है। सब इसे बहुत दुखद और शर्मनाक बता रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकारों के मुताबिक इससे पत्रकारिता का दामन दाग़दार हुआ है और इसकी हर किसी को खुल कर निंदा करनी चाहिए। ये इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे से ऐसी कोई हरकत नहीं हो। जनतंत्र ने इस बारे में बिहार के कई प्रतिष्ठित पत्रकारों से बात की।

उनकी प्रतिक्रिया पढ़ने के लिए रीड मोर पर क्लिक करें ... READ MORE

Thursday, July 30, 2009

मुख्यमंत्री के चेंबर में पत्रकारों ने की मारपीट

बिहार की राजधानी पटना में पत्रकार मुख्यमंत्री के चेंबर में भिड़ गए। मामला प्रेस क्लब की राजनीति से जुड़ा है और अब इस घमासान में मारपीट होने लगी है। पत्रकार अपनी सभी मर्यादाओं को ताक पर रख एक दूसरे की बखिया उधेड़ने में जुटे हैं। शब्दों का इस्तेमाल करने वाले शब्दों की गरिमा को भुला बैठे हैं।
वाकया आज दोपहर का है। लेकिन इस झगड़े की जड़ में आज सुबह दैनिक जागरण के पटना एडिशन में छपी एक तस्वीर है। नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस के पीछे स्टार न्यूज के पत्रकार प्रकाश कुमार भी मौजूद थे। लेकिन तस्वीर में उनका चेहरा ब्लर कर दिया गया था। इसलिए कि प्रेस क्लब को लेकर दैनिक जागरण के पत्रकारों से उनका झगड़ा हो चुका था। खुन्नस में दैनिक जागरण के उन पत्रकारों ने प्रकाश कुमार से बदला इस ओछे तरीके से लिया।.... READ MORE

Wednesday, July 29, 2009

पान खाओ, नशा करो... खरीद कर पढ़ना मत

एक जमाना था कि खद्दर के झोले में लोग धर्मयुग रखकर बड़े गुमान से चलते थे। लोगों को वह पत्रिका कुछ वैसे ही धर्म (यहां धर्म का मतलब कर्तव्य है) का भान कराती थी, जैसे जामवंत जब तब हनुमान को उनकी शक्ति की याद दिलाते थे। उस पत्रिका को लोग समाज और उसका मानस बदलने का एक सशक्त जरिया मानते थे। अब समाज बदला या नहीं बदला लेकिन धर्मयुग नहीं रहा। आखिर बाजार के युग में धर्म कहां टिकता है? धर्मयुग नही टिकी। धर्मयुग ही क्यों, दिनमान, माया, रविवार जैसी पत्रिकाएं .... READ MORE

अब गूगल की खैर नहीं!

साइबर स्पेस में अब लड़ाई और रोमांचक हो गई है।गूगल कोमाइक्रोसॉफ्ट और याहू ने हाथ मिला लिया है। बुधवार को हुए करार के मुताबिक दोनों मिल कर ऑनलाइन सर्च में गूगल को टक्कर देंगे।
दस साल के लिए हुए इस समझौते में याहू.कॉम अब माइक्रोसॉफ्ट के नए सर्च इंजन बिंग का इस्तेमाल करेगा। दोनों को उम्मीद है कि इससे याहू पर विज्ञापन क्षेत्र की बड़ी कंपनियां आकर्षित होंगी। इस करार से जो भी आमदनी होगी माइक्रोसॉफ्ट उसमें से 88 फीसदी याहू को दे देगा।... READ MORE

संसद में भी बजी टीआरपी की घंटी, मगर क्यों?

राज्य सभा में टेलीविजन के गिरते स्तर पर बहस। बहस में बहुत से सांसदों ने हिस्सा लिया। लेकिन तीन सांसद टीआरपी के विरोध में बहुत ज़्यादा मुखर थे। वो तीनों सांसद हैं - बीजेपी के रविशंकर प्रसाद, कांग्रेस के राजीव शुक्ला और सीपीएम की वृंदा करात। उन्होंने मीडिया की गिरती साख के लिए टैम और उसकी तरफ़ से हर हफ़्ते जारी होने वाले टीआरपी चार्ट को ज़िम्मेदार ठहराया। पूरी बहस और इन सभी की दलीलों को पढ़ने के बाद कुछ और सवाल भी उठते हैं। 1) क्या मीडिया संस्थानों को उनके अपराध के लिए क्लीन चिट देते हुए सिर्फ टैम को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? 2) क्या बाज़ारवाद के दौर में बाज़ार के मानकों की अनदेखी की जा सकती है? 3) अगर टैम और टीआरपी खलनायक हैं तो फिर उनका विकल्प क्या होगा? किस चैनल को कितने दर्शक देखते हैं इसका पैमाना क्या होगा? 4) क्या उन सांसदों का मीडिया से जुड़े सवालों को उठाना सही है जिनके घर-परिवार के लोग इस कारोबार से जुड़े हों।
ये सब जानते हैं कि बीएजी फिल्म को राजीव शुक्ला की पत्नी .... READ MORE

Monday, July 27, 2009

...तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति

अगर आधे घंटे का एक टेलीविज़न शो सदियों पुरानी संस्कृति को उखाड़ फेंक रहा हो, तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति। ऐसी कमज़ोर और बेबुनियाद संस्कृति, जो हज़ारों साल पुरानी होने का दम भरती हो और दुनिया की सबसे मज़बूत तहज़ीब, सबसे सम्मानित समझी जाती हो।

सच का सामना सिर्फ़ भारत ही नहीं कर रहा, यहां जर्मनी में भी हो रहा है. इंडियन लोगों में चर्चा हो रही है और बहस भी। लेकिन ताज्जुब इस बात पर कि जब सात समंदर पार समोसा और बिरयानी को नहीं भुला पाए, जब अरहर की दाल के बिना दिन का खाना पूरा नहीं होता, तो ख़ुद अपने देश में एक बनावटी और नक़ल किया हुआ शो कैसे तहज़ीब पर ख़तरा बन सकता है। ..... READ MORE

बेरहम सरकार, जंगली विपक्ष

सलीके से सिर ढंकने वाली महबूबा मुफ्ती को संसदीय सलीका नहीं आता। अगर आता तो जम्मू कश्मीर विधानसभा में सोमवार को जो कुछ हुआ, वह नहीं होता। महबूबा इस कदर आपा नहीं खोतीं कि स्पीकर की गरिमा का भी उन्हें खयाल नहीं रहता। वह युवा हैं लेकिन घाटी की एक वरिष्ठ नेता हैं। उनका व्यवहार उनकी पार्टी और प्रदेश की संसदीय राजनीति के लिए एक अनुकरण होना चाहिए, ना कि ऐसा जिसे देखकर किसी भी संजीदा व्यक्ति का मस्तक शर्म से झुक जाए। स्पीकर का माइक खींचना विरोध प्रदर्शन का सौम्य तरीका नहीं हो सकता, जबकि संसदीय परंपरा तो बहुत हद तक मर्यादा और लोक-लाज की पगडंडी से होकर ही गुजरती है। महबूबा के किए पर खिन्न होने का ये कतई मतलब नहीं है कि जम्मू कश्मीर की सरकार जो कुछ शोपियां बलात्कार और हत्या मामले में कर रही है, उसे सही ठहराया जा सकता है। जैसे जैसे 15 अगस्त 1947 से .... READ MORE

करगिल उत्सव ख़त्म, नहीं हुई गंभीर बात

बीते एक सप्ताह में टेलीविजन चैनलों ने एक ख़ौफ़नाक युद्ध को उत्सव बना दिया। और एक अजीब से राष्ट्रप्रेम में करगिल की तथाकथित जीत का ये उत्सव मनाया गया। एक चैनल ने कहा “ज़रा याद करो कुर्बानी” ... दूसरे चैनल से आवाज़ आई... “जां तक लुटा जाएंगे”... तीसरे ने कहा... अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। जोर-शोर से विजय दिवस मनाया गया और उन शहीदों को याद किया गया। उन शहीदों को मेरी तरफ से भी श्रद्धांजलि। लेकिन ये पूरा उत्सव ख़त्म हो गया, विजय दशमी मना ली गई। और इक्का दुक्का उदाहरणों को छोड़ कर कहीं कोई गंभीर बात नहीं हुई।

करगिल सैनिकों के लिए जीत थी। लेकिन वो युद्ध हुआ तो भारत की नाकामी की वजह से। हमारी सीमा में पाकिस्तानी सैनिक घुस आए और बंकर बना लिये। हमारे पास खुफिया ... READ MORE

लूटपाट, क़त्ल और व्यभिचार के लिए एकजुट हों !

"सच का सामना" के बचाव में कई महारथी मैदान में उतर आए हैं। वीर सांघवी का कहना है कि अगर आपको रिएल्टी टीवी पसंद नहीं तो अपना मत रिमोट से जाहिर कीजिए। चैनल बदल दीजिए। वो भी ऐसा करते हैं इसलिए भारत के तमाम दर्शकों से उनकी अपील है कि वो भी ऐसा ही करें। वीर सांघवी के मुताबिक सच का सामना या फिर ऐसे किसी भी कार्यक्रम को बंद करना सेंसरशिप को बढ़ावा देना है। वो ऐसी किसी भी सेंसरशिप के पक्ष में नहीं।
मीडिया से जुड़ी चर्चित वेबसाइट "एक्सचेंज फॉर मीडिया" पर एक लेख छपा। चार दिन पहले। कोई प्रद्युमन महेश्वरी हैं। मीडिया के बड़े जानकार मालूम होते हैं। उन्होंने सरकार से कहा है कि वो टीवी चैनलों को उनके हाल पर छोड़ दें। वो "सच का सामना" के समर्थन में यहां तक कह देते हैं कि नेताओं की कई हरकतें ऐसी होती हैं जिनसे बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। तो क्या उन पर भी पाबंदी लगा दी जाए। यह भी कहते हैं कि सभी चैनलों को इस कार्यक्रम के समर्थन में एकजुट हो जाना चाहिए।

अब आप समझ सकते हैं कि "सच का सामना" के समर्थन में कितने बड़े-बड़े लोग मैदान में उतर आए हैं। इस बीच एक ख़बर यह भी है स्टार प्लस ने इस शो को बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। इसके समर्थन में पूरी फौज खड़ी की जा रही है। नए-नए तर्क गढ़े जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी और क्रिएटिविटी को सबसे मजबूत ढाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर "सच का सामना" रोका गया तो ये रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की हत्या होगी। बचाव की इन दलीलों में कितना दम है इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे। शुरुआत करते हैं कि आखिर सच का सामना में रचनात्मकता कितनी है और कितनी नहीं? .......... READ MORE

Sunday, July 26, 2009

टाइम का टाइम ख़राब, इकोनमिस्ट की बढ़ी इनकम

ऐतिहासिक मंदी ने दुनिया भर के मीडिया संस्थानों की हालत ख़राब कर दी है। विस्तार की योजनाएं ठप पड़ी हैं। कई बड़ी कंपनियों पर कर्ज का बोझ बेतहाशा बढ़ गया है। बहुत से अख़बार बंद हो चुके हैं। वेबसाइट भी घाटे में हैं। लेकिन इन सब निराशाजनक ख़बरों के बीच द इकोनमिस्ट ने मुनाफा कमाया है। क्यों और कैसे - ये बता रहे हैं बॉन से ओंकार सिंह जनोटी। ओंकार एक ऐसे उभरते हुए पत्रकार हैं जिनमें असीम ऊर्जा है और व्यापक समझ भी। वो इन दिनों जर्मनी के डॉयचे वेलेको अपनी सेवाएं दे रहे हैं।



डिजिटल एज कहे जाने वाले इस दौर में समाचारों में कमी नहीं है. लेकिन दुनिया भर में मशहूर और दिग्गज मानी जाने वाली टाइम और न्यूज़वीक मैग्ज़ीन की हालत ख़स्ता है. विज्ञापन से होने वाली आय के मामले में बीते साल न्यूज़वीक को 27 फीसदी नुकसान हुआ और टाइम को 14 फीसदी तिजोरी ख़ाली देखनी पड़ी. लेकिन पब्लिशर्स इंफार्मेशन ब्यूरो के मुताबिक़ द इकोनमिस्ट मैग्ज़ीन ने न सिर्फ मंदी को पटख़नी दी, बल्कि आमदनी को भी 25 फीसदी बढ़ाया. अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया पर बारीक नज़र रखने वाले द एटलांटिक डाट कॉम के कांट्रिब्यूटिंग एडीटर माइकल हाइशोर्न और एडीटोरियल डायरेक्टर बॉब काह्न कहते हैं कि अब वक्त बदल रहा है.... ((READ MORE))

नाम रह जाएगा….

एक मित्र ने बताया कि उनके यहां जीडीए की ओर से एक सफाई कर्मचारी आया था। नाम था रुमाल सिंह। एक भाई ने बताया कि हमारे गांव में एक चचा थे। मोची थे। नाम था कोलंबस। बात चली तो मुझे भी कुछ रोचक नाम याद आ गए।
दोस्तों के साथ बैठे हों, वो भी एनएसडी यानी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के हॉस्टल में, तभी कोई ज़ोर से आवाज़ लगाए- 'प्रशासन..!' क्या लगेगा? शायद किसी नाटक का संवाद बोला जा रहा है या फिर...? पता चला एक साथी एक्टर का नाम है। पूरा नाम है- प्रशासन संरक्षण मल्तियार। पता नहीं कितना सही था लेकिन मेरे चौंकने पर दोस्तों ने बताया कि प्रशासन के घर में और लोगों के नाम भी ऐसे ही - राष्ट्र, राज्य, संविधान, नीति टाइप के हैं। ..... READ MORE

Saturday, July 25, 2009

सबसे पहले तो बंद करो “सच का सामना”

“सच का सामना” बंद होना चाहिए या नहीं - इस पर बहस तेज़ हो रही है। वैसे ऐसे कार्यक्रमों में कोई बुराई नहीं। लेकिन क्या सच में हमारा समाज ऐसे किसी भी सच का सामना करने के लिए तैयार है? शुरुआती कुछ खुलासों से ऐसा नहीं लगता। आप सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली को ही लीजिए। विनोद कांबली ने इस कार्यक्रम के दौरान कह दिया कि सचिन ने उनकी उतनी मदद नहीं की। चाहते तो कर सकते थे। लेकिन नहीं की। बाद में इसका खंडन किया। लगभग गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में कहा कि उनकी मंशा ऐसा नहीं थी। लेकिन लोग कांबली की सफ़ाई कबूल करें भी तो कैसे? उन्होंने टीवी पर कांबली को खुद इस सच से पर्दा उठाते देखा। सचिन से रिश्तों में दूरी बढ़ गई। दोनों दोस्त अब दूर हो गए।

यह बात उस दोस्ती की है जिसकी लोग मिसाल दिया करते थे। खेल की दुनिया में लोग उनकी दोस्ती की कसम खाते थे। दोनों को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इस घटना ने इतनी दरार पैदा कर दी जिसे भविष्य में पाटना बहुत मुश्किल होगा।


बहुत से लोग.... READ MORE

Friday, July 24, 2009

सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

अविनाश ने जो बातें कही हैं, उनमें बहुत दम है। और इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि “अश्लीलता कोई राजनीतिक या सामाजिक (या यहां तक कि निजी) विचारधारा नहीं है। यह हमारी सभ्‍यता की वो सरहद है, जहां कब दीवार खड़ी कर दी गयी, हमें पता ही नहीं चला”। लेकिन अश्लीलता परिभाषित नहीं की जा सके – ऐसा भी नहीं है। इसकी परिभाषा है। ये परिभाषा बहुत हद तक सब्जेक्टिव है। मतलब हमारे समाज में जो अश्लील है, यूरोप के लिए वो श्लील हो सकती है। यूरोप के अलग-अलग देशों में भी ये परिभाषा बदल सकती है। ये भी मुमकिन है कि यूरोप में जो अश्लील मानी जाए जापान में उसे लोग यूं ही नज़रअंदाज कर दें। हर देश के कानून में वहां के सामाजिक परिदृष्य को रख कर अश्लीलता की परिभाषा गढ़ी गई है।

लेकिन सभी जगह अश्लीलता की परिभाषा में कुछ केंद्रीय तत्व हैं। जिनमें सबसे अहम है कि कोई भी रचना साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मानदंडों पर कहां तक खरी उतरती है। उस रचना की मंशा क्या है और उसके पीछे तर्क क्या है? अगर किसी भी कृति में इनमें से कोई भी तत्व ठोस स्तर पर मौजूद है तो आप उसे सीधे तौर पर अश्लील करार नहीं दे सकते हैं।.... READ MORE

Thursday, July 23, 2009

खजुराहो क्‍या हमारे पर्यटन उद्योग का अश्‍लील पैकेज है?

जनतंत्र पर साथी कबीर ने दो दिन पहले एक लेख लिखानवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर की वेबसाइट पर ख़बरों के रूप में अश्लील साहित्य परोसने का आरोप लगाते हुए कबीर ने सविता भाभी की तरह उन पर प्रतिबंध लगाने का मांग की। आजवरिष्ठ पत्रकार अविनाश ने कबीर के लेख का जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि ये मांग बेतुकी है। साइबर स्पेस में हर किसी का अपना कोना है। दूसरे का कोना छेकने का हक़ किसी को नहीं होना चाहिए। कानून को भी नहीं। आप उनका लेख पढ़िए और उतनी ही बेबाकी से अपनी राय रखिए जितनी बेबाकी से अविनाश ने लिखा है।

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मुझे मालूम नहीं कि अश्‍लीलता के संदर्भ में विचारधारा का सवाल कितना पारिभाषित है - लेकिन इतना मालूम है कि ऐसे किसी भी व्‍यवहार पर कानूनी पाबंदी है। इसके बावजूद धड़ल्‍ले से अश्‍लील साहित्‍य प्रकाशित होते हैं और बड़े पैमाने पर बिकते हैं। पचास-साठ के दशक में राजकमल चौधरी ने मैथिली में एक नॉविल लिखा था, पाथर फूल। दरभंगा के एक प्रेस से छप रहा था। किसी कर्मचारी ने ..... (READ MORE)

एनडीटीवी को 83.4 करोड़ रुपये का घाटा

एनडीटीवी को इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून 2009) में भारी घाटा हुआ है। कंपनी को 130.7 करोड़ रुपये की आमदनी हुई है जबकि खर्च 198 करोड़ रुपये। इसमें ब्याज और दूसरी चीजों को जोड़ने-घटाने के बाद कंपनी को कुल 83.4 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

पिछले साल इसी तिमाही की तुलना में आमदनी में करीब 11.28 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई है। जबकि खर्च में 20. 2 करोड़ रुपये की कमी आई है। सबसे अधिक कटौती मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन और प्रमोशन खर्च में हुई है। जबकि प्रोडक्शन खर्च और पर्सनल एक्सपेंसेज में मामूली कमी आई है। नतीजों के मुताबिक कंपनी पर ब्याज का बोझ भी बढ़ा है। ..... (( READ MORE))

साहित्य की दुनिया इतनी ही गंदी है दोस्तों

मैंने ज़िंदगी में डायरी छोड़ कर कुछ नहीं लिखा (सिवाए जनतंत्र पर एक लेख के)। कभी कभार दोस्तों को ई-मेल भेज देता हूं। लेकिन मैं एक अच्छा पाठक जरूर हूं। इसलिए साहित्य की ज़्यादातर बहसों से वाकिफ़ हूं। चाहे वो प्रेमचंद को जातिवादी ठहराने की कोशिश हो या फिर उदय प्रकाश को लेकर चल रहा ताज़ा विवाद। मैं इस विवाद में नहीं कूदना चाह रहा था। लेकिन पाठक को भी अपनी बात कहने का हक़ है। इसी हक़ का इस्तेमाल करते हुए मैं भी अपनी बात कहूंगा। खुल कर कहूंगा।

सबसे पहले तो यह कि उदय प्रकाश ने जो गुनाह किया है उसके लिए उनका बचाव नहीं किया जा सकता। भविष्य में जब भी उदय प्रकाश के इस गुनाह का मूल्यांकन किया जाएगा तो आज जो भी उनके बचाव में खड़े हैं, वो सभी उनके इस गुनाह में बराबर के भागीदार माने जाएंगे। वो जाने-अनजाने में एक ऐसी प्रवृति को जन्म दे रहे हैं जिसमें कोई भी साहित्यकार किसी फासीवादी ... किसी भी दंगाई के गले में बांह डाले घूमेगा और आलोचना करने वालों से कहेगा कि “तुम मेरे कर्म को मत देखो मेरा साहित्य पढ़ो। मैं निजी ज़िंदगी में कुछ भी होऊं तो क्या लेकिन साहित्य में तो साम्यवादी हूं। गरीबों की बात करता हूं... पिछड़ों, दलितों के साथ हूं। तुम मेरे साहित्य की वजह से मुझे चाहते हो... इसलिए मेरे उसी रूप की पूजा करो”। .... READ MORE

Tuesday, July 21, 2009

... तो कलाम नहीं जाते अमेरिका

एपीजे अब्दुल कलाम जैसा सरल-सहज व्यक्तित्व दीया लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। दिमाग ऐसा कि आने वाली पीढ़ियां उस पर शोध कर सकती हैं लेकिन चेहरे पर वह मासूमियत जो किसी बच्चे में देखी जाती है। भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने वाले वैज्ञानिक अब्दुल कलाम, जनता के राष्ट्रपति माने जाने वाले अब्दुल कलाम। सबके लिए इतने प्रिय कि प्यार से लोग उन्हें काका कलाम कहकर पुकारने लगे। उस काका कलाम से अमेरिकी एयर अधिकारियों ने इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर बदसलूकी की।

इसी साल 24 अप्रैल को डॉक्टर कलाम सरकारी यात्रा पर अमेरिका जा रहे थे। उन्हें इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर कॉन्टीनेंटल एयरलाइंस की फ्लाइट संख्या सीओ-083 से न्यूयॉर्क जाना था। तब उस एयरलाइन कंपनी के कर्मचारियों ने सुरक्षा जांच के नाम पर डॉक्टर कलाम की जेब में रखा पर्स और उनका मोबाइल ही नहीं उतरवाया, बल्कि जूते तक खोलवा लिये। कायदे से भारत का पूर्व राष्ट्रपति उस वीआईपी श्रेणी में आता है, जहां उसे ऐसे शक और जलालत की नजर से नहीं देखा जा सकता। लेकिन अमेरिकियों ने किसी दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष या पूर्व राष्ट्राध्यक्ष का सम्मान करना कब सीखा?.... (READ MORE)

"सविता भाभी" की तरह इन पर भी लगे प्रतिबंध

सविता भाभी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ये एक पोर्न कार्टून साइट है, जिसके चरित्र का नाम है सविता भाभी। कुछ ही दिन में ये वेबसाइट भारत में काफी लोकप्रिय हो गई थी। इतनी कि दुनिया के सबसे अधिक “नैतिक राष्ट्र” में नैतिकता का सवाल उठ खड़ा हुआ। इंटरनेट पर ऐसी हज़ारों पोर्न वेबसाइट भारत में धड़ल्ले से खुलती हैं। साइबर कैफे में लोग घंटों ऐसी वेबसाइटों पर चिपके रहते हैं। लेकिन नैतिकता का सवाल सिर्फ़ और सिर्फ़ सविता भाभी नाम की साइट पर उठा। सरकार भी तुरंत हरकत में आई और उसने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अब ये साइट भारत में नहीं खुलती है।
ये एक ऐसी वेबसाइट थी, जो खुलेआम दावा करती थी कि वो पोर्न कार्टून वेबसाइट है। लेकिन यहां तो कई अख़बार अपने पन्नों पर और अपनी वेबसाइट पर वैसा ही अश्लील मसाला देते हैं, ..... (READ MORE)




Saturday, July 18, 2009

जब नंगी तस्वीरों से काम चले तो ख़बर कौन पूछे?


हिंदी मीडिया की मौजूदा हालत के लिए आखिर कौन-कौन जिम्मेदार हैं? जनतंत्र पर इस सवाल से जुड़ी एक बहस चल रही है। हमने उदयन शर्मा की याद में हुए संवाद के बहाने इस मुद्दे पर कुछ सवाल उठाए थे। फिर प्रोफेसर आनंद कुमार का वो लेख छापा जिनमें कई सवालों के जवाब थे। अब उसी बहस को आगे बढ़ा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह। जनसत्ता से संजय कुमार सिंह का गहरा नाता रहा है। उन्होंने इस अख़बार को 1987-2002 तक पंद्रह साल दिये हैं। अब वो अनुवाद के जरिए अपनी जीविका चला रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में आर वेंकटरमन की पुस्तक "माइ प्रेसिडेंशियल इयर", एन के सिंह की "द प्लेन ट्रूथ", जे एन दीक्षित की "इंडो पाक रिलेशन" और लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा की "वीर कुंवर सिंह" समेत बीस से ज़्यादा चर्चित पुस्तकों का वो अनुवाद कर चुके हैं। आप जनतंत्र पर उनका ये लेख पढ़िए और हिंदी पत्रकारिता की दशा-दिशा पर चल रही बहस को आगे बढ़ाइए।

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हिन्दी पत्रकारिता की दशा दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। एक समय हिन्दी के मानक कहे गए अखबार जनसत्ता का हवाला देकर बातें तो की जा सकती हैं पर उसका कोई मतलब नहीं है। अगर यह तथ्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी अखबारों के मुकाबले अंग्रेजी वालों को ज्यादा महत्त्व देते रहे तो इसका मतलब है और ऐसा क्यों है यह समझना कोई मुश्किल नहीं है और इसके लिए अगर कोई दोषी है तो वो हम ही हैं। इनमें पत्रकार, संपादक, मालिक सलाहकार सब की भागीदारी है। हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों, पाठकों, पत्रकारों, मालिकानों ..... READ MORE

पाठकों को धोखा दे रहा है “हिंदुस्तान”

"हिंदुस्तान" के कुछ फैसले चौंकाने वाले होते हैं। उन्हें "सामान्य समझ" रखने वाले पाठक नहीं समझ सकेंगे। जैसे मैं नहीं समझ पा रहा हूं। इसके लिए शायद कुछ "ज़्यादा ज्ञान" की जरूरत हो जो मुझमें नहीं है। लेकिन एक पाठक होने के नाते मुझे ये पूरा हक़ है कि अपनी नादानी की वजह से ही जो मेरे मन में सवाल उठ रहे हैं उन्हें सबके सामने जाहिर करूं। बीते दो दिन में हिंदुस्तान ने दो बड़े फ़ैसले लिये। बाकी तमाम हिंदी अख़बारों से अलग फ़ैसले लिए। किस मंशा से... किन वजहों से... सही-सही तो वहां के संपादक ही बता सकेंगे। हम और आप बस एक विश्लेषण कर सकते हैं।

शुरुआत करेंगे हिंदुस्तान के दूसरे फ़ैसले से। यानी आज के फ़ैसले से। आज हिंदुस्तान में फ्रंट पेज से मेट्रो पर सीएजी की रिपोर्ट...... ((READ MORE))

Friday, July 17, 2009

नवभारत टाइम्स को तगड़ा झटका, मधुसूदन आनंद का इस्तीफ़ा

मधुसूदन आनंद ने नवभारत टाइम्स के को-एक्जीक्यूटिव एडिटर के पद से इस्तीफा दे दिया है। वो बीते कुछ समय से अपने अधिकारों में कटौती को लेकर थोड़ा दुखी थे। सूत्रों के मुताबिक मधुसूदन जल्दी ही किसी दूसरे मीडिया संस्थान में शामिल होंगे। वो मीडिया संस्थान कौन सा है और मधुसूदन किस पद पर जा रहे हैं अभी ये खुलासा नहीं हुआ है।
नवभारत टाइम्स में मधुसूदन आनंद बीते डेढ़ दशक से सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। लेकिन बीते एक साल में अपने अधिकारों में कटौती को लेकर थोड़ा खिन्न चल रहे थे। करीब बारह साल पहले सूर्यकांत बाली के जाने के बाद से नवभारत टाइम्स को दो स्तंभ रहे हैं।
समाचार पक्ष रामकृपाल सिंह के हवाले रहा तो विचार पक्ष मधुसूदन आनंद के जिम्मे। कुछ साल पहले जब... READ MORE

Thursday, July 16, 2009

"जनसत्ता" और उसकी ये "महान" खोजी पत्रकारिता

जनसत्ता में बुधवार को एक बहुत बड़ी ख़बर छपी। उसका हेडर था "कई गंभीर खामियों से भरी हुई है मेट्रो"। इसमें कहा गया है कि "दिल्ली मेट्रो रेल की निर्माणाधीन लाइनें ही नहीं बल्कि इसकी चालू लाइन भी खतरे से खाली नहीं है। मेट्रो की लाइन नंबर दो की पटरियां (लोहे का ढांचा जिस पर ट्रेन चलती है) में जगह-जगह गड्ढे हो गए हैं जो कभी भी किसी गंभीर घटना को अंजाम दे सकते हैं"। अगर ये ख़बर सही है तो श्रीधरन और मेट्रो पर बहुत बड़ी लापरवाही का मामला बनता है। उनके ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर मुहिम चलाने की ज़रूरत है। मेट्रो के ख़िलाफ़ तुरंत कार्रवाई के लिए दबाव बनाने की ज़रूरत है। उसे एक साथ हज़ारों लोगों की ज़िंदगियों को ख़तरे में डालने की छूट नहीं दी जा सकती। किसी कीमत पर नहीं दी जा सकती।

Monday, July 13, 2009

हिंदी पत्रकारिता के नाम दो मिनट का मौन

उदयन शर्मा की याद में हुए संवाद में शरद यादव ने अहम मुद्दा उठाया। वो सभा के आखिर में बोले इसलिए उनकी बात आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया, उस पर व्यापक बहस होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सभा में वो लोग नहीं पहुंचे जो फैसले करते हैं। उन्होंने कहा कि कपिल सिब्बल ही नहीं देश के तमाम हुक्मरान हिंदी अख़बारों को दोयम नज़रिये से देखते हैं और अंग्रेजी अख़बारों को लेकर सम्मोहित हैं। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का उदाहरण देकर कहा कि वो जब प्रधानमंत्री थे हर सुबह अंग्रेजी अख़बारों को जितना ध्यान देकर पढ़ते थे और उनकी ख़बरों को जितना अहमियत देते थे, उन्होंने हिंदी अख़बारों को वो अहमियत कभी नहीं दी। ये ऐसे प्रधानमंत्री की बात थी जिन्होंने हमेशा हिंदी भाषी क्षेत्रों से राजनीति की। जो हमेशा हिंदी भाषी क्षेत्रों से चुने गए। जिन्हें हिंदी का बड़ा वक्ता गिना गया और जो खुद को हिंदी का कवि बताते रहे। आखिर क्यों? हिंदी के पत्रकार वो सम्मान हासिल नहीं कर सके जो अंग्रेजी के पत्रकारों को मिला? हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं के पत्रकारों की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या सिर्फ़ सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहाराया जा सकता है या फिर कहीं न कहीं इसके लिए “हम” खुद भी जिम्मेदार हैं. “हम” मतलब हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के तमाम पत्रकार और संपादक।.... ((READ MORE))

Sunday, July 12, 2009

नेताओं और पत्रकारों की छींटाकशी में छूट गए मुद्दे

दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में शनिवार को उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट की तरफ से संवाद 2009 का आयोजन किया गया। इस मौके पर कपिल सिब्बल, शरद यादव, सीताराम येचुरी, कुलदीप नैयर, राहुल देव, संतोष भारतीय, नीलाभ मिश्रा, आशुतोष, पुण्य प्रसून वाजपेयी, कुर्बान अली, पंकज पचौरी समेत कई दिग्गज पत्रकार और नेता जमा हुए। सभी ने मीडिया की मौजूदा स्थिति पर जो कुछ कहा उससे मोटे तौर पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, हाल के दिनों में जो धत्तकर्म हुए हैं उनसे मीडिया की साख बहुत घटी है। दूसरा, घटती साख से पत्रकारों का एक धड़ा बेचैन है। तीसरा, पत्रकारों का एक वर्ग ऐसा भी जो अपनी ठसक में अब भी व्यापक बहस के लिए तैयार नहीं है। चौथा, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की घटती साख से बाकी तीन स्तंभ अधिक निरंकुश हो गए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कपिल सिब्बल ने ये नहीं कहा होता कि आप कुछ भी लिखते रहें, हमें फर्क नहीं पड़ता।.... ((READ MORE))

Saturday, July 11, 2009

मीडिया में “मायावती” और “कांशी राम” क्यों नहीं हैं?

सियासत में सम्मानजनक स्थान हासिल कर चुकी पिछड़ी जातियों और दलितों के नुमाइंदे
मीडिया में वो मुकाम हासिल नहीं कर सके हैं। आखिर क्यों? क्या ये उनकी नाकामी है।
नहीं। ये उनकी नाकामी कतई नहीं… ये तो अगड़ों की साज़िश है। आप वरिष्ठ
पत्रकार अनिल चमड़िया
का ये लेख पढ़ें और सदियों से चली आ रही इस साज़िश
को करीब से समझें। भारतीय मीडिया के जातिवादी और सामंती चेहरे को करीब से देखें।

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सुशील का फोन आया ‘सर आज भी नेशनल एडिशन में पहले पन्ने पर बाई लाइन स्टोरी लगी है। ये चौथी है सर! पहले भी नेशनल एडीशन में तीन स्टोरी लगी थी। एक तो लीड भी बनी थी सर! सुशील बहुत खुश था। वह उत्तर प्रदेश के उस पिछड़े जिले से स्थानीय संस्करण के लिए बाई लाइन खबरें तो ढेरों निकाल लेता है, साथ ही उसने कई ऐसी स्टोरी की हैं जिन्हें कई संस्करणों में निकलने वाले समाचार पत्र ने बहुत ही प्रमुखता से छापा है। सुशील देश में पत्रकार तैयार करने वाले बेहतरीन ब्रांड के संस्थान से निकला है। वह अपनी कक्षा में पहला छात्र था जिसकी चिट्ठी ने पाठकों के पत्रों के बीच अपनी जगह बनाई थी। उसने जनसत्ता के संपादक को एक दिन समाचार पत्र में छपी कुछ गलतियों को सुधारने के लिए एक चिट्ठी लिखी थी। संपादक ने उसे धन्यवाद पत्र भी भेजा था। .....((read more))

Thursday, July 9, 2009

मीडिया की आधी आबादी का सच

“अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते हैं।” वरिष्ठ पत्रकार इरा झा ने अपनी ज़िंदगी के कुछ अनछुए पन्नों को सामने रख कर कई बड़े सवाल उठाए हैं। ये सिर्फ़ उनका सच नहीं बल्कि हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी तमाम महिलाओं का है जिन्हें हर रोज मर्दों की बनाई इस दुनिया में अपने हक़ की लड़ाई लड़नी पड़ती है। ये वो सच है जिससे हम और आप नज़रें तो चुरा सकते हैं, लेकिन उसे झुठला नहीं सकते। इरा झा की ये दास्तान सामयिक वार्ता के मीडिया विशेषांक से साभार आपके सामने है… आप पढ़िए और बताइए कि क्या ये सच नहीं है?
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ज़मींदारों और जजों के खानदान की इस लड़की के पत्रकार बनने की कहानी कोई तीन दशक पुरानी है। भारत सरकार में संयुक्त सचिव अपने पिता के साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग से दिल्ली पहुंचकर इस महानगर की नब्ज भांपने की कोशिश कर रही थी कि एक दिन सड़क पार भारतीय जनसंचार संस्थान जाना हो गया। तब ये संस्थान साउथ एक्सटेंशन यानी मेरे आवास के पास था। वहां दिल्ली पाठ्यक्रम के निदेशक डॉ. रामजीलाल जांगिड़ मिल गए। उनसे मिलकर अपनी लिक्खाड़ तबियत और समसामयिक विषयों में दिलचस्पी के बारे में बताया तो बोले- एक कार्यशाला होने वाली है, खेल पत्रकारिता पर। उसमें क्यों नहीं शामिल हो जाती? मैं डेढ़ सौ रुपये देकर ..... ((READ MORE))

“हिंदुस्तान” का अंधविश्वास

“हिंदुस्तान” अंधविश्वास की गिरफ़्त में है और उसमें आए दिन कई ऐसी ख़बरें छपती हैं जिनसे अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है। श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान सबने देखा कि किस तरह वहां हेडलाइन दी गई श्रीलंका में एक और लंका कांड। बिना सोचे-समझे प्रभाकरण की तुलना रावण से की गई और लगा कि श्रीलंकाई राष्ट्रपति राम से कम नहीं।
अब आप वहां छपी एक और ख़बर पर नज़र डालिए। इसे 12वें पन्ने पर बड़ी प्राथमिकता से छापा गया है। .... ((READ MORE))

Thursday, July 2, 2009

जरनैल को नौकरी से निकाला गया

पत्रकार जरनैल सिंह को हटा दिया गया है। जरनैल सिंह दैनिक जागरण में रक्षा मामलों से जुड़ी ख़बरें दिया करते थे। वो चुनाव से पहले उस वक़्त सुर्खियों में आए जब उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाल दिया था। वो सिख विरोधी दंगों के आरोपी जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को कांग्रेस की तरफ से टिकट दिए जाने से नाराज़ थे।

जरनैल सिंह ने 7 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को सीबीआई की तरफ से क्लीन चिट दिये जाने पर चिदंबरम से सवाल पूछा। चिदंबरम ने जवाब दिया लेकिन उससे जरनैल सिंह संतुष्ट नहीं हुए।
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जरैनल सिंह को दी गई चिट्ठी