Thursday, July 9, 2009

मीडिया की आधी आबादी का सच

“अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते हैं।” वरिष्ठ पत्रकार इरा झा ने अपनी ज़िंदगी के कुछ अनछुए पन्नों को सामने रख कर कई बड़े सवाल उठाए हैं। ये सिर्फ़ उनका सच नहीं बल्कि हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी तमाम महिलाओं का है जिन्हें हर रोज मर्दों की बनाई इस दुनिया में अपने हक़ की लड़ाई लड़नी पड़ती है। ये वो सच है जिससे हम और आप नज़रें तो चुरा सकते हैं, लेकिन उसे झुठला नहीं सकते। इरा झा की ये दास्तान सामयिक वार्ता के मीडिया विशेषांक से साभार आपके सामने है… आप पढ़िए और बताइए कि क्या ये सच नहीं है?
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ज़मींदारों और जजों के खानदान की इस लड़की के पत्रकार बनने की कहानी कोई तीन दशक पुरानी है। भारत सरकार में संयुक्त सचिव अपने पिता के साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग से दिल्ली पहुंचकर इस महानगर की नब्ज भांपने की कोशिश कर रही थी कि एक दिन सड़क पार भारतीय जनसंचार संस्थान जाना हो गया। तब ये संस्थान साउथ एक्सटेंशन यानी मेरे आवास के पास था। वहां दिल्ली पाठ्यक्रम के निदेशक डॉ. रामजीलाल जांगिड़ मिल गए। उनसे मिलकर अपनी लिक्खाड़ तबियत और समसामयिक विषयों में दिलचस्पी के बारे में बताया तो बोले- एक कार्यशाला होने वाली है, खेल पत्रकारिता पर। उसमें क्यों नहीं शामिल हो जाती? मैं डेढ़ सौ रुपये देकर ..... ((READ MORE))