Tuesday, June 30, 2009
पुष्पेंद्र से इस्तीफ़े की मांग, क्लब में घोटाले का आरोप
प्रेस क्लब के मौजूदा ट्रेजरार नदीम अहमद काजमी के मुताबिक शुरुआती “चंद हफ़्तों को छोड़ दिया जाए तो उसके बाद लेन-देन के किसी भी दस्तावेज पर उनके हस्ताक्षर नहीं मिलेंगे। ऐसा इसलिए कि प्रेस क्लब के जनरल सेक्रेटरी पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ सारे लेन-देन अपने ही हस्ताक्षर से करते हैं।” उनका ये आरोप भी है कि ... ((READ MORE))
Monday, June 29, 2009
घुसपैठ के बाद दिल्ली के प्रेस क्लब में पहुंची पुलिस
रविवार, 28 जून 2009 को दिल्ली के प्रेस क्लब में पुलिस दाखिल हुई। मामला प्रेस क्लब में घुसपैठ का था। चश्मदीदों के मुताबिक वहां करीब 11 बजे एक कपूर नाम का शख़्स करीब 40-45 लोगों के साथ दाखिल हुआ। ... ((READ MORE))
न्यूज़ एक्स में क़त्लेआम
न्यूज़ एक्स में करीब सभी महकमों में अहम पदों पर तैनात लोगों पर गाज गिरी है। पॉलिटिकल एडिटर .... ((READ MORE))
Sunday, June 28, 2009
पीएम की मस्ती, पीएम का मीडिया
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मीडिया को मैनुपुलेट किया जाता है। मीडिया चाहे तो किसी नायक को एक पल में खलनायक बना दे और किसी खलनायक को नायक। इटली में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वहां के प्रधानमंत्री बार्लुस्कोनी सेक्स स्कैंडल में फंसे हैं। विरोधी पार्टियां जांच के लिए दबाव डाल रही हैं तो दूसरी तरफ बार्लुस्कोनी अपने न्यूज़ चैनलों की मदद से बचाव में जुटे हैं। इससे पहले भी बार्लुस्कोनी कई बार संगीन आरोपों में फंस चुके हैं, लेकिन हर बार मीडिया के इस्तेमाल और अपनी चतुराई से वो बचते रहे हैं। यूरोप से पूरा ब्योरा दे रहे हैं साथी पत्रकार अनवर जे अशरफ़।
इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बार्लुस्कोनी यूरोप के शायद सबसे विवादित राष्ट्राध्यक्ष हैं. यूं तो बार्लुस्कोनी 72 साल के हैं लेकिन अनगिनत सेक्स स्कैंडलों में फंसे हैं. उन पर प्रधानमंत्री रहते हुए नाबालिग़ लड़की से रिश्ते रखने से लेकर कॉल गर्ल के साथ रात बिताने तक के आरोप हैं. भ्रष्टाचार, टैक्स चोरी और माफ़िया से रिश्तों का आरोप अलग. सवाल यह उठता है कि इतने आरोपों के बाद वह पद पर कैसे बने हैं. शायद मीडिया में उनका दख़ल सबसे बड़ी वजह है. बार्लुस्कोनी एक कुशल राजनेता के साथ साथ इटली के अरबपति कारोबारी भी हैं और देश के मीडिया बाज़ार का बहुत बड़ा हिस्सा उनकी कंपनी चला रही है.
कॉल गर्ल से जुड़ा ताज़ा क़िस्सा ही लीजिए. आरोप है कि बार्लुस्कोनी के आलीशान घर पर पार्टी हुई, जिसमें मोटी फ़ीस पर महंगी कॉल गर्ल शामिल हुई. मामला सामने आने के बाद प्रधानमंत्री इनकार तो नहीं कर पाए लेकिन सधे सधाए मीडिया के ज़रिए सफ़ाई ज़रूर पेश कर दी. अपने ही अख़बार को .... ((READ MORE))
Saturday, June 27, 2009
“एसपी को खरीदने की हैसियत किसी में नहीं थी”
आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष ने कहा कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को एक कुंठा से बाहर निकाला और उसे पेशेवर बनाया। उन्होंने बताया कि एसपी के दौर से पहले हिंदी का पत्रकार कुंठा में जी रहा था। वो अंग्रेजी के पत्रकारों को अपने से ऊपर मानता था। शायद इसलिए क्योंकि सत्ता के गलियारे में उनकी सुनी जाती थी। हिंदी के पत्रकारों की नहीं। लेकिन एसपी ने अपने तरीके से हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारों के बीच खिंची दीवार गिरा दी। “आज तक” के जरिए साबित किया कि हिंदी के पत्रकार किसी से कम नहीं हैं और उनकी आवाज़ को कोई अनसुनी नहीं कर सकता। आशुतोष ने ये भी कहा कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को.... ((READ MORE))
Thursday, June 25, 2009
क्या मीडिया का काम सिर्फ़ उन्माद फैलाना है?
19 जून को जब कोबरा फोर्स ने लालगढ़ में प्रवेश किया तो अगले दिन सारे अख़बारों की सुर्खियों में उन्मादी राष्ट्रवाद झलक रहा था। कोबरा फोर्स ने कसा लालगढ़ पर शिकंजा – जैसी सुर्खियों का लब्बोलुबाब यही था कि फोर्स के जवानों की गोलियों से माओवादियों को कोई नहीं बचा सकता। इस कवरेज में एक बात और चिंताजनक थी। लगभग सभी अख़बारों ने माओवादियों को घृणित अपराधी की तरह पेश करते हुए कहा कि उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आगे कर दिया है। वो इनका इस्तेमाल ढाल की तरह कर रहे हैं। मतलब अगर कर्ण का वध करना है तो सबसे पहले उसका कवच ..... ((READ MORE))
Wednesday, June 24, 2009
वोट से पहले मीडिया में खेला गया नोट का खेल
दिल्ली सरकार ने चुनाव पूर्व मीडिया के लिए खजाना खोल दिया था। दस साल में विज्ञापन राशि तीस गुना से ज्यादा बढ़ गई है। चार साल में गैर-समाचार पत्र प्रचार माध्यमों में विज्ञापन के मद में खर्च सौ गुना से ज्यादा बढ़ गया है। केन्द्र सरकार ने भी चुनाव के पहले के महीनों में मीडिया के लिए खजाना लूटाया था। शीला दीक्षित और मनमोहन सिंह की इस दरियादिली पर से अब पर्दा उठ रहा है। और ये पर्दा उठा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया। आप उनके इस शानदार विश्लेषण को पढ़िये और अंदाजा लगाइये कि क्यों यूपीए सरकार की ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ मीडिया की आवाज़ धीमी पड़ गई है?... क्यों मंत्रियों की अय्याशी पर मीडिया ख़ामोश है? और क्यों बीते कई साल से किसी बड़े घोटाले का पर्दाफाश नहीं हुआ है? सोचिए कि क्या हमारे देश के सारे अधिकारी और सारे नेता ईमानदार हो गए हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि दलाल दलाली छोड़ कर भजन-कीर्तन में जुट गए हैं? सोचिए और खुल कर अपनी प्रतिक्रिया दीजिये।
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आरटीआई के दायरे में हों मीडिया संस्थान
मीडिया को सूचना अधिकार के दायरे में लाया जाए या नहीं – ये बहस तेज हो रही है। कुछ समय पहले अरुंधति रॉय से बात हुई तो उन्होंने मीडिया को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की बात कही। मीडिया संस्थानों को मिलने वाले पैसे का पूरा हिसाब देने की मांग की। वो पैसा कहां से आता है और कौन देता है? मांग सही है। हर पैसे का अपना चरित्र होता है और यही पैसा मीडिया संस्थानों का चरित्र भी तय करता है। इसलिए इसे आरटीआई के दायरे में लाना चाहिये। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया भी इसी बहस को आगे बढ़ा रहे हैं। उनका कहना है जिस तरह मीडिया सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल कर दूसरी संस्थाओं के बारे में जानकारी हासिल करता है ठीक वैसे ही “मीडिया को भी अपने लिए इस कानून के इस्तेमाल की सुविधा मुहैया करानी चाहिये।” दैनिक हिंदुस्तान से साभार ... हम उनका ये लेख आपके सामने पेश कर रहे हैं। आप भी इस बहस में शामिल हों। खुल कर अपनी प्रतिक्रिया दें।
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कोलकाता के जे एन मुखर्जी ने एक समाचार पत्र में एक लेख पढ़कर लेखकी की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के लिए पत्र लिखा। उन्हें महीनों तक जवाब नहीं मिला। लेखक के बारे में जानना जरूरी था, क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी एक विषय पर उन्होंने जो दावे किये थे वे भ्रामक थे और एक हद तक बेबुनियाद भी थे। जे.एन. मुखर्जी समाचार पत्र के दफ़्तर पहुंच गए। लेकिन उन्हें कई बार की भागदौड़ के बाद भी उस लेखक का न तो पता ठिकाना मिला और न ही उसके बारे में कोई जानकारी।.... ((READ MORE))
Tuesday, June 23, 2009
जागरण में ये ख़बर किसने “प्लांट” की?
अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो ग़लत है। उस ख़बर में ऐसा कुछ .... ((READ MORE))
Monday, June 22, 2009
दिल्ली के पत्रकार को जान से मारने की धमकी
अरबिंद गोस्वामी के मुताबिक इसी महीने की बारह तारीख को उनकी कंपनी में काम करने वाले निखिल ओजा ने उन्हें फोन किया और जान से मारने की धमकी दी। उसने कहा कि “तुमको हमारे बारे में अभी पता नहीं है। तुम्हारा कुछ अता-पता भी नहीं चलेगा। दो मिनट में तुम्हें हम लोग साफ करा देंगे”। उससे दो दिन पहले कंपनी के ही एक और कर्मचारी पराग लोहांडे ने फोन पर ऐसी ही धमकी दी थी। इन दोनों के ख़िलाफ़ जब अरबिंद ने कंपनी के मालिक नितेश राणे से की तो उनका लहजा भी धमकी भरा ही था। आखिर में तंग आकर उन्होंने तीनों के ख़िलाफ़ लिखित शिकायत थाने में दर्ज करा दी। जिसके बाद पूछताछ के लिए जब पुलिस ने नितेश राणे और उनके साथियों से संपर्क साथा को वो अरबिंद पर समझौते के लिए दबाव .... ((READ MORE))
Sunday, June 21, 2009
क्या कंधों पर कुछ बोझ महसूस हो रहा है?
शैलेंद्र सिंह की असमय मौत से उठे सवाल ने हर किसी को बेचैन कर दिया है। यही वजह है कि जनतंत्र की अपील के बाद कई लोग अपने दिल की बात लिख रहे हैं। बस उन सबकी गुजारिश यही है कि उनका नाम जाहिर न हो। हमें भी मुद्दे से मतलब है, किसी के नाम से नहीं। ऐसा ही एक ख़त हम आपसे साझा कर रहे हैं। लिखने वाले ने बड़ी संजीदगी से अपनी बात रखी है। आप भी उसी संजीदगी से पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये।
शैलेंद्र सिंह के साथ इतना काम किया वो बीच रास्ते ही चला भी गया. लेकिन अपने पीछे एक बहस छोड़ कर. वो बहस जिसे अब आगे बढ़ाया जाना चाहिए. वो मुद्दा जिस पर गंभीरता से विचार किया जाए तो आगे कई और शैलेंद्र की तरह सब कुछ अधूरा छोड़ चले जाने से बच जाएं, शायद. सीधे मुद्दे की बात करें. टीवी में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा. इसका ग्लैमर इसकी कई खामियों को लगातार ढकने में कामयाब रहा है. यहां लोग एक दूसरे की नौकरी के प्यासे हो चले हैं. (नौकरी ही आजकल सुख चैन का स्तर तय करने लगी है जो दरअसल होना नहीं चाहिए. लेकिन ये सच है, क्या करें). इसके पीछे कोई ठोस वजह हो ये ज़रूरी नहीं है. किसी को किसी की शक्ल पसंद नहीं आती. किसी को किसी का ऊंचा बोल देना अपनी शान में गुस्ताख़ी लग जाता है. तो कई ऐसे होते हैं जो अपने से ज़्यादा काबिल आदमी के रास्ते में हर तरह का जाल बुनने, हर तरह का छल प्रपंच करने में जुटे रहते हैं. ये आज शुरू नहीं हुआ. सालों से हो रहा है. लेकिन अब इस पर बहस होनी चाहिए. हर क्षेत्र की तरह टीवी में भी अच्छे, बुरे हर तरह के लोग हैं. हर क्षेत्र की तरह यहां भी समीक्षा होनी ही चाहिए. टीवी में बढ़ते तनाव की कुछ वजहें तो आसानी से गिनाई जा सकती हैं.
1. टीवी का तनाव दरअसल जबरन ओढ़ाया गया तनाव है. ये तनाव तब ज़्यादा बढ़ता है जब कई चुपचाप अपने काम में लगे लोगों को उन कई लोगों का भी काम करना पड़ता है जो अपनी नौकरी को छोड़ नौकरी के वक्त में बाकी सब कुछ कर रहे होते हैं. फोन पर चिपके जाने कहां देर तक गपिया रहे होते हैं. कुछ-कुछ देर बाद निकल कर चाय, पानी, सिगरेट के अड्डे पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे होते हैं. उन्हें पता होता है कि काम तो पीछे चल ही जाएगा. कुछ गधे हैं ना बैठे हुए काम निपटा देने के लिए और बाकी तनाव अपने साथ .... ((READ MORE))
Saturday, June 20, 2009
“शैलेंद्र जाते-जाते हमें सोचने को मजबूर कर गए हैं”
(पत्रकार शैलेंद्र के निधन से आहत एक शख़्स ने शुक्रवार शाम जनतंत्र के ई-मेल पर एक ख़त भेजा। ख़त भेजने वाले को मैं व्यक्तिगत तौर पर जनता हूं। मैंने फोन करके पूछा कि क्या ये ख़त जनतंत्र पर छाप दूं। उन्होंने मना कर दिया। कहा कि “ऐसा करके आप मेरा तनाव बढ़ा देंगे।” फिर मैंने उनसे पूछा कि क्या नाम जाहिर नहीं करे तो आप इसे छापने देंगे… “उन्होंने कहा कि सोचने का वक़्त दीजिये।” आज शाम मैंने उन्हें दोबारा फोन किया तो उन्होंने कहा कि “अगर किसी भी सूरत में मेरा नाम जाहिर नहीं होगा तो आप इसे छाप सकते हैं।” मैंने उनसे वादा किया और उनकी पहचान छिपाने के लिए ख़त को थोड़ा संपादित किया। अब मैं ये ख़त आपके सामने रख रहा हूं। आप सोचिये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये। अपने-अपने दिल पर हाथ रख कर कहिये कि ये ग़लत है।)
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शुक्रवार, 19 जून 2009, सुबह 10 बज कर 30 मिनट …. दिल्ली का निगम बोध घाट... बड़ी संख्या में पत्रकार आईबीएन 7 के सीनियर एडिटर शैलेंद्र सिंह को अंतिम विदाई देने के लिए पहुंचे थे... वहां मौजूद सभी के चेहरों पर मातम की लकीरें पढ़ी जा सकती थीं... खुद को सांत्वना देने के लिए वहां मौजूद हर शख़्स यही कह रहा था कि शैलेंद्र को मौत खींच कर ले गई। वरना कोई दूसरी वजह नहीं थी कि वो रात डेढ़ बजे घर से दूर नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे पर लॉन्ग ड्राइव के लिए जाते।.... ((READ MORE))
Friday, June 19, 2009
बेशर्म दैनिक भास्कर
अभिलाष खांडेकर के संकीर्ण नज़रिये पर सवाल उठने के बाद से दैनिक भास्कर का रवैया बेहद हैरान करने वाला है। कल वेब एडिशन के संपादक राजेंद्र तिवारी ने पाठकों की भावनाओं का खयाल रखते हुए खांडेकर के लेख पर खेद जताया और आपत्तिजनक पंक्तियों को हटा दिया। मगर खेद जताने का तरीका बड़ा अजीब था। कायदे से होना तो ये चाहिये था कि लेख अभिलाष खांडेकर ने लिखा है तो माफी भी वही मांगते। अगर अभिलाष खांडेकर में अहंकार इतना अधिक है कि उन्हें अपनी ग़लत ..... ((read more))
पूरे देश से माफी मांगें अभिलाष खांडेकर
अभिलाष खांडेकर ने संपादकीय में लिखा है कि “कभी-कभी लगता है हम बिहार के किसी शहर में रह रहे हैं, शांत, कानूनप्रिय भोपाल में नहीं। पुलिस महानिदेशक संतोष राऊत भले अफसर की छवि रखते हैं पर उनसे यदि लूट, बलात्कार, चोरी-डकैती नहीं रुकती तो उस छवि का क्या फायदा? सख्त उन्हें भी होना है और मुख्यमंत्री को भी। भोपाल को पटना बनाने से रोकना हो तो।” अभिलाष से ये पूछना चाहिये कि क्या वो कभी बिहार गए हैं? अगर नहीं, तो फिर किस आधार पर उन्होंने ये ज़हर उगला है। अगर हां, तो क्या बिहार में कदम रखने पर किसी ने उनकी इज्जत तार-तार कर दी थी कि वो पूरे राज्य की जनता को अपमानित करने पर आमादा हो गए?
अभिलाष खांडेकर ने अपने इस संपादकीय से पत्रकारिता के पवित्र पेशे को कलंकित कर दिया है। पत्रकार का सिर्फ़ एक कर्म है। उसे जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, निजी राजनीतिक और आर्थिक हितों से ऊपर उठ कर देश और देश की जनता के बारे में सोचना चाहिये। जहां कहीं भी अन्याय हो रहा है तो वो पीड़ितों के हक़ में अपनी कलम को हथियार की तरह ..... ((READ MORE))
Wednesday, June 17, 2009
ये अख़बार और ये पत्रकार … धन्य हैं
हिंदुस्तान, 17 जून 2009
पेज नंबर – 8 (देश)
झंडा ढोने वाले गेस्ट, भाषण देने वाले होस्ट
पटना (हिं. ब्यू.) – मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सरकारी आवास, एक अणे मार्ग। चुनाव के दौरान झंडा ढोने वाले पंगत में बैठकर भोजन कर रहे हैं और मंच से भाषण देने वाले परोसकर खिला रहे हैं। चुनाव में जीत की खुशियां बांटने का नीतीश कुमार का यह है नायाब अंदाज। वे खुद होस्ट की भूमिका में हैं। कोई छूट न जाए इसके लिए वे सबसे खुद मिल रहे हैं।लजीज भोजन, ऊपर से नेता से मिला सम्मान। सबके चेहरे के भाव के साथ उनकी भंगिमा बता रही है कि खुशी छुपाना उनके वश का नहीं रहा। दूसरी पंगत में बैठा एक कार्यकर्ता बगल वाले से कहता है “ओह! चुनाव के थकान आजे नु मिटल”, जवाब में दूसरा कहता है ..... ((READ MORE))
Tuesday, June 16, 2009
एक-दूसरे की हत्या करा रही है सरकार
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जितेंद्र – अक्सर कहा जाता है कि मीडिया फोर्थ स्टेट (चौथा स्तंभ) है … क्या सच में ये फोर्थ स्टेट है?
अरुंधति – मुझे लगता है कि शायद ये फर्स्ट स्टेट है। इनका जो रोल है वो बहुत बढ़ गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर नहीं बल्कि स्टेटस्को (यथास्थितिवाद) बनाए रखने में बहुत बढ़ गया है। अभी आप देखो कि ये टीवी पर जो यंग पीपुल हैं, वही माहौल बना रहे हैं। कॉरपोरेट के खिलाड़ी हों, या डिफेंस के अफ़सर हों, नेता हों या फिर कोई और …. वो सबको बीच में रोक कर पूछते हैं कि सर क्या भारत को पाकिस्तान से रिश्ते तोड़ लेने चाहिये? क्या भारत को पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिये? … ये आखिर क्या है? ये बहुत डरावना है। ....
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Sunday, June 14, 2009
"टीम इंडिया" की तरह "हिंदुस्तान" भी फिसड्डी
“कुंज बिहारी” को कैसे मिलेगी स्कॉलरशिप?
Thursday, June 11, 2009
“बहुत महंगी है अभिव्यक्ति की आज़ादी”
अरुंधति रॉय से ख़ास बातचीत....
अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या है? क्या भारत में आप और हम बोलने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं? क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ - मीडिया पूरी तरह आज़ाद है? ये कुछ मुद्दे हैं जिन पर, वर्तमान दौर में चर्चा बेहद अहम हो गई है। लोकसभा चुनाव में सबने देखा कि किस तरह मीडिया ने लेन-देन का खेल किया। किस तरह ख़बरें दबाई गईं, मैनुपुलेट की गईं। जिन उम्मीदवारों के पास पैसा नहीं था वो चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी बात कहते रहे लेकिन उन्हें किसी अख़बार ने नहीं छापा। देश और दुनिया में ऐसी कई घटनाएं हो रही हैं जिसे कोई अख़बार नहीं छापता है। कोई टीवी न्यूज़ चैनल नहीं दिखाता है। आखिर क्यों? इन सब मुद्दों पर जनतंत्र डॉट कॉम के लिए जितेंद्र और समरेंद्र ने अरुंधति रॉय से बात की। बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति उन चंद साहसी लोगों में एक हैं जो सच कहने से नहीं डरते। सच चाहे अमेरिका के ख़िलाफ़ हो, चाहे कंपनियों के ख़िलाफ़ या फिर चाहे भारत सरकार के ख़िलाफ़।
तो इसे कहते हैं साहसिक पत्रकारिता!
इसी साल मार्च में ये ख़बर उड़ी कि कसाब केस की सुनवाई की वीडियो क्लिप लीक कर दी गई है। जिसके बाद सरकार ने न्यूज़ चैनलों के लिए एक एडवाइजरी जारी की। ((READ MORE))
Wednesday, June 10, 2009
हिंदुस्तान, मृणाल पांडे और उनका बड़ा दिल
सपनों की देहरी पर नन्हा दीया - जुमलेबाजी अच्छी है। लेकिन इस जुमलेबाजी में कई पेंच हैं। यहां सबसे बड़ा और पहला सवाल तो यही है कि अख़बारों का पहला दायित्व क्या है? नीतियों पर सवाल उठाना या फिर प्रचार के लिए पाठकों को इमोशनली ब्लैकमेल करना? ये सवाल बड़ा है और फिहलाल हम इस पर चर्चा रहने देते हैं। अभी बात हिंदुस्तान की जुमलेबाजी में छिपे उन खास बिंदुओं पर जो उसकी इस पूरी मुहिम को सरोकार कम, एक ओछे दर्जे का विज्ञापन ज़्यादा साबित करते हैं?
Tuesday, June 9, 2009
इस ख़बर की मंशा क्या है?
Sunday, June 7, 2009
यह नई पत्रकारिता है जी
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वे जब सूचना के जन अधिकार अभियान के कार्यकर्ता हुआ करते थे तो अरविंद केजरीवाल से मिलना जुलना होता था। फिर जब सूचना के अधिकार का कानून बन गया तो केजरीवाल ने दिल्ली जैसे महानगर में काम करने के लिए “परिवर्तन” नाम की संस्था बनाई। गांवों में काम करने वाले लोगों से सीधे मिलने और बात की बात से प्रचार करके काम चला सकते हैं। महानगर में मीडिया की सहायता के बिना लोगों तक पहुंचा नहीं जा सकता। केजरीवाल ने इसलिए दिल्ली के मीडिया से संबंध बनाए और उससे मिले सहयोग के कारण उनके काम का असर भी हुआ। भले लोगों की सिफारिश पर उन्हें मेग्सेसे भी मिल गया। अब वे सूचना के अधिकार आंदोलन के नेता हो गये। अब वे पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन के जरिये सूचना के अधिकार को बढ़ाने वाले लोगों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने वाले हैं।
अच्छा है। लेकिन इससे अपने को उत्तेजित होने की जरूरत नहीं थी। यह कागद कारे इसलिए लिख रहा हूं कि अरविंद केजरीवाल ने यह पुरस्कार तय करने के लिए जो समिति बनाई है, उसमें ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को भी रखा है, जिसने इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया। भ्रष्टाचार तो हिंदी इलाके के और भी बल्कि देश भर के अखबारों ने किया। पैसे लेकर उम्मीदवारों के प्रचार को खबर बनाकर छापा और पाठकों को बताया तक नहीं कि ये खबरें उनकी नहीं, उम्मीदवार के प्रचार के विज्ञापन हैं। उम्मीदवारों को अपना खर्च सीमा में रखने और काले पैसे से मनचाहा प्रचार पाने की सुविधा हुई। चुनाव कवरेज के लिए हिंदी इलाके में घूमने वाले समझदार और जानकार पत्रकारों का अंदाज है कि उत्तर प्रदेश के इस अखबार ने इस चुनाव में कोई दो सौ करोड़ रुपये का काला धन बनाया है। ....... ((READ MORE))....
Saturday, June 6, 2009
क्या तानाशाह बनना चाहती हैं मायावती?
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने गुपचुप तरीके से एक अध्यादेश जारी किया है। इस अध्यादेश के मुताबिक सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने पर भी सूबे के मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के आचार व्यवहार के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाएगी। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि मंत्रियों और सांसदों के ख़िलाफ़ शिकायतों से जुड़ी जानकारी और जांच का ब्योरा ..... ((READ MORE))
Friday, June 5, 2009
दाऊद से जुड़ी अफ़वाह भी बिकती है
चर्चा आगे बढ़ाने से पहले कुछ ब्रेकिंग न्यूज़ के कुछ वाक्यों पर नज़र डालिये। अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद का भाई अनीस बुरी तरह घायल!… कराची में हुए हमले में अनीस घायल? … अनीस को लगी 12 गोलियां… कराची में मारी गई गोलियां… एटीएम के बाहर मारी गईं गोलियां… गोलीबारी में दाऊद भी जख़्मी! …. बलूच गिरोह ने मारी गोलियां… एक अख़बार के हवाले से ख़बर…. डी कंपनी में हड़कंप ..... ((READ MORE))
Thursday, June 4, 2009
मनमोहन सरकार का मीडिया मैनेजमेंट
इस लिस्ट के मुताबिक पिछले साल जनवरी से मार्च के बीच तीसरे स्थान पर मौजूद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इस साल पहले स्थान पर है। बैंकिंग सेक्टर की दूसरी बड़ी कंपनियां इस लिस्ट में कहीं नहीं हैं। मतलब साफ है एसबीआई ने प्रचार पर अपने प्रतिद्वंदियों से काफी अधिक पैसा खर्च किया… आखिर क्यों? ठीक इसी तरह दूसरे नंबर पर मौजूद है एक और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनल। जबकि टेलीकॉम सेक्टर की कोई और कंपनी टॉप टेन में शामिल नहीं है। वोडाफोन और रिलायंस ...... ((READ MORE AND COMMENT))
Tuesday, June 2, 2009
बिहार की गुलाम पत्रकारिता ((पार्ट – 2))
इसे विस्तार से समझने के लिए आप कभी बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग की वेबसाइट पर जाएं। वहां आपको राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 मिलेगी। इस नीति के तीसरे पेज पर चौथे कॉलम में साफ शब्दों में लिखा है कि “कोई भी समाचार पत्र-पत्रिका, जो कि स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हैं, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा”।...... ((READ MORE))......