Saturday, July 11, 2009

मीडिया में “मायावती” और “कांशी राम” क्यों नहीं हैं?

सियासत में सम्मानजनक स्थान हासिल कर चुकी पिछड़ी जातियों और दलितों के नुमाइंदे
मीडिया में वो मुकाम हासिल नहीं कर सके हैं। आखिर क्यों? क्या ये उनकी नाकामी है।
नहीं। ये उनकी नाकामी कतई नहीं… ये तो अगड़ों की साज़िश है। आप वरिष्ठ
पत्रकार अनिल चमड़िया
का ये लेख पढ़ें और सदियों से चली आ रही इस साज़िश
को करीब से समझें। भारतीय मीडिया के जातिवादी और सामंती चेहरे को करीब से देखें।

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सुशील का फोन आया ‘सर आज भी नेशनल एडिशन में पहले पन्ने पर बाई लाइन स्टोरी लगी है। ये चौथी है सर! पहले भी नेशनल एडीशन में तीन स्टोरी लगी थी। एक तो लीड भी बनी थी सर! सुशील बहुत खुश था। वह उत्तर प्रदेश के उस पिछड़े जिले से स्थानीय संस्करण के लिए बाई लाइन खबरें तो ढेरों निकाल लेता है, साथ ही उसने कई ऐसी स्टोरी की हैं जिन्हें कई संस्करणों में निकलने वाले समाचार पत्र ने बहुत ही प्रमुखता से छापा है। सुशील देश में पत्रकार तैयार करने वाले बेहतरीन ब्रांड के संस्थान से निकला है। वह अपनी कक्षा में पहला छात्र था जिसकी चिट्ठी ने पाठकों के पत्रों के बीच अपनी जगह बनाई थी। उसने जनसत्ता के संपादक को एक दिन समाचार पत्र में छपी कुछ गलतियों को सुधारने के लिए एक चिट्ठी लिखी थी। संपादक ने उसे धन्यवाद पत्र भी भेजा था। .....((read more))