Sunday, August 23, 2009

वॉयस ऑफ इंडिया का प्रसारण फिर शुरू

वॉयस ऑफ इंडिया का प्रसारण फिर शुरू हो गया है। दो दिन पहले चैनल के कर्मचारियों की हड़ताल से इसका प्रसारण रुक गया था। लेकिन मैनेजमेंट के आश्वासन के बाद सभी कर्मचारी बिना शर्त काम पर वापस लौट आए हैं। रात 12 बजे बुलेटिन रोल किया गया और उसके साथ ही चैनल फिर से ऑनएयर हो गया ।

शुक्रवार को जोरदार हंगामे के बाद तकनीकी कर्मचारियों ने चैनल का प्रसारण रोक दिया गया था। तीन महीने से तनख्वाह नहीं मिलने के कारण वो काफी निराश थे। उसी बीच कहीं से अफवाह उड़ी कि कंपनी चैनल को बंद करने जा रही है। इस अफवाह से उनकी उम्मीदें टूट गईं और गुस्सा भड़क गया। उन्होंने चैनल का प्रसारण रोक दिया और बात यहां तक पहुंची कि पुलिस बुलानी पड़ी। लेकिन अब सबकुछ सामान्य है।

वॉयस ऑफ इंडिया के समूह संपादक किशोर मालवीय के मुताबिक ..((. read more))

Friday, August 21, 2009

“वॉयस ऑफ इंडिया” ख़ामोश

वॉयस ऑफ इंडिया का प्रसारण बंद हो गया है। कर्मचारियों के विद्रोह के बाद वहां पर पुलिस बुलानी पड़ी। वॉयस ऑफ इंडिया का दफ़्तर दिल्ली से सटे नोएडा में है और आज शाम न्यूज़ चैनल के कर्मचारियों ने उसका प्रसारण रोक दिया। ख़बरों के मुताबिक उन कर्मचारियों को बीते तीन महीने से तनख्वाह नहीं मिली है और मैनेजमेंट के रवैये से वो बेहद भड़के हुए हैं।

वॉयस ऑफ इंडिया त्रिवेणी ग्रुप का न्यूज़ चैनल है। उसमें करीब दो सौ कर्मचारी काम करते हैं। उन सभी को पिछले साल दिसंबर में भी तनख्वाह नहीं मिली थी। वो विवाद पहले से था। उसके अलावा मई से उन्हें तनख्वाह नहीं दी गई है। इसी बीच कहीं से एक ख़बर आई कि आज रात कंपनी चैनल को बंद कर सकती है। जिसके बाद कर्मचारियों के सब्र का बंध टूट गया। उन्होंने तुरंत प्रसारण रोक दिया और धरने पर बैठ गए। कर्मचारियों के उग्र तेवर को देखते हुए वहां पर पुलिस बुलानी पड़ी है। ... ((READ MORE))

प्रभाष जी की पंडिताई में तथ्यों की ऐसी-तैसी

प्रभाष जोशी बड़े पत्रकार हैं। बहुत बड़े पत्रकार। इसलिए इतनी उम्मीद की जाती है कि उनके विचार चाहे जो भी हों, लेकिन उन्हें स्थापित करने के लिए वो सही तथ्य लेकर आएंगे। लेकिन रविवार डॉट कॉम में दिए इंटरव्यू में अपनी बातों को साबित करने के लिए वो बेहद बेतुकी बातें कर गए हैं। एक दो नहीं बल्कि कई ग़लत तथ्यों को प्रस्तुत किया। लगता है कि सुनी सुनाई बातों को वो सच मान बैठे हैं। फैक्ट्स के मामले में ऐसी असावधानी अक्षम्य है क्योंकि आप प्रभाष जोशी हैं, शलाका पुरुष। ... (READ MORE)

हर चीज को जाति के चश्मे से मत देखिए प्रभाष जी

पत्रकारिता में आने से पहले से प्रभाष जोशी को पढ़ रहा हूं। उनके लिखे ने उनका सम्मान इतना बढ़ाया है कि कई बार दूसरों से बहस में झगड़े की नौबत आ गई। प्रभाष जोशी के विरोधी उन पर दो ही आरोप लगाते रहे हैं एक कि भीतर से वो घोर संघी हैं और दूसरी घोर ब्राह्मणवादी। लेकिन जो भी मुझसे ये कहता था मैं उसे "हिंदू होने का धर्म" पढ़ने की सलाह दे देता। बीते 17 साल के लेखन में प्रभाष जी ने बीजेपी की जो खाट खड़ी की है उससे एक धारणा तो ऐसी बनती ही है कि वो संघ के मुरीद होंगे तो होंगे लेकिन उनकी कलम संघ के बंधन में नहीं है। केंद्र में जब एनडीए की सरकार थी तब मैंने कई बार जनसत्ता में प्रभाष जी के तीखे लेख पढ़े हैं। उन्होंने स्वयंसेवक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कई मुद्दों पर कड़ी आलोचना की है। वैसी आलोचना कोई खांटी पत्रकार ही कर सकता है।

ये सम्मान हाल-फिलहाल और बढ़ गया, जब प्रभाष जी ने समाचार पत्रों की दलाली के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला। वैसे इस मसले को उठाने का श्रेय वॉल स्ट्रीट जरनल के पॉल बेकेट को दिया जाना चाहिए। उन्होंने ही मई की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया था कि ख़बरों के पैकेज का कैसा गंदा खेल चल रहा है? लेकिन यह भी एक सत्य है कि प्रभाष जी के लेख के बाद इस मुद्दे पर जो बहस हुई है उससे थोड़ी हलचल जरूर हुई। प्रभाष जी ने दस मई को अपना पहला लेख लिखा "ख़बरों के पैकेज का काला धंधा।" अगले हफ़्ते 17 मई को दूसरा लेख लिखा "चौकीदार का चोर होना।" घूम घूम कर इस मुद्दे पर हवा बनाने लगे। लगा कि प्रभाष जी की अगुवाई में दलाली करने वालों को सज़ा भले ही नहीं मिले लेकिन दलालों की असलियत सामने ज़रूर आएगी। उस बहस से लोगों के दिलो दिमाग पर पड़ी धूल झड़ जाएगी। ठंडे पड़े लहू में हल्का ही सही उबाल आएगा। भविष्य में सकारात्मक बदलावों की नींव तैयार होगी। लेकिन ऐसा होता उससे पहले ही प्रभाष जी ने अपने विरोधियों को अपने ऊपर हमले का एक औजार थमा दिया है। सिर्फ़ विरोधियों को ही क्यों मुझ जैसे कई प्रशंसकों का मोह भी भंग .... (READ MORE)

क्या यही आपकी परंपरा है प्रभाष जी?

रविवार डॉट कॉम पर छपे प्रभाष जोशी के इंटरव्यू ने एक झटके में वह सब सामने ला दिया है जो अब तक पर्दे की ओट में था। एक गांधीवादी, अहिंसावादी, सेक्यूलर और जनपक्षीय संपादक-पत्रकार का यह असली सच जितना चौंकाता है, इससे कहीं अधिक आक्रोश पैदा करता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वाले इस वरिष्ठ पत्रकार-लेखक ने इस इंटरव्यू में परंपरा, ट्रेनिंग और कौशल के बहाने न केवल लोकतंत्र की आत्मा को घायल किया है, बल्कि उन लोगों को भी अपमानित किया है, जिनकी सामाजिक पृष्ठभूमि प्रभु वर्ग की नहीं है।

अपने साक्षात्कार में जोशी जी ने कहा है "विनोद कांबली का एटीट्यूड बना कर रखने और लेकर जाने का नहीं है। कुछ कर दिखाने का है।" अब जोशी जी को क्या यह बताना पड़ेगा कि कांबली जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, वहां सम्मान के साथ जीने की एकमात्र शर्त है- कुछ कर दिखाने का जज्बा। कभी-कभी तो कुछ कर दिखाने का जज्बा भी उनके जी का जंजाल बन जाता है। यकीन न आए तो खैरलांजी की घटनाओं को फिर से याद कर लीजिए। तस्वीर साफ हो जाएगी।... (READ MORE)

Wednesday, August 19, 2009

ब्रह्म से संवाद करते ब्राह्मण यानी प्रभाष जोशी का विराट रूप देखिए

"सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है. क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है. तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारीरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए."

ये कौन बोल रहा है और इस समय ऐसा क्यों बोल रहा है। राज्यसभा चुनाव से ठीक पहले ये कौन है जो अपने ब्राह्मण रूप का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहा है। इस खास समय में एक साथ हिंदूत्ववादियों-आरएसएस और कम्युनिस्टों को आजादी की लड़ाई का गद्दार कहते हुए वो क्या हासिल करना चाहता है। .... (READ MORE)

सहारा के कर्मचारी नहीं करेंगे सरेंडर

सहारा से हटाए जा रहे कर्मचारी अब लंबी लड़ाई लड़ने का मन बना रहे हैं। करीब 30-35 कर्मचारियों का एक दल आज लखनऊ गया है। इन कर्मचारियों की कोशिश सहारा के मालिक सुब्रत राय से मुलाकात करने की है। अगर उनसे भेंट नहीं हुई या फिर भेंट होने पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो ये कर्मचारी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलने की कोशिश करेंगे। कर्मचारियों का कहना है कि अगर जरूरत पड़ी तो वो अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे लेकिन इस्तीफ़ा नहीं देंगे।

कर्मचारी मंदी की दलील को हजम करने को तैयार नहीं। नाम नहीं छापने की शर्त पर .... ((READ MORE))

Tuesday, August 18, 2009

सहारा में सुनामी, 48 कर्मचारियों से मांगा इस्तीफ़ा

सहारा के लोग अब बेसहारा हो रहे हैं। उन्हें बेसहारा कोई और नहीं बल्कि उनकी ही कंपनी कर रही है। ताज़ा ख़बर के मुताबिक मंगलवार को 48 रिपोर्टरों, कैमरामैनों और टेक्नीशियनों से मैनेजमेंट ने इस्तीफ़ा मांगा। ज़्यादातर कर्मचारियों ने मैनेजमेंट के इस आदेश को मानने से इनकार किया जिसके बाद बात इतनी बढ़ी कि रात आठ बजे उन सभी को गेस्टहाउस खाली करने का हुक्म दे दिया गया।

नाम नहीं छापने की शर्त पर सहारा के एक कर्मचारी ने इस पूरे मामले का ब्योरा दिया। बताया कि मैनेजमेंट ने उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के स्टाफ रिपोर्टरों और कैमरामैनों को एक बैठक के लिए दिल्ली आने का न्योता दिया। दिल्ली पहुंचने पर उन सभी से कहा गया कि वो तीन महीने की बेसिक तनख्वाह लेकर ... (READ MORE)

Sunday, August 16, 2009

यहां "शहाबुद्दीन”, “बजाज” और “ये पत्रकार” एक जैसे हैं!

राज्य (राज) सभा में जाने लायक जितने भी नाम आपने गिनाए हैं, वे सभी शायद एक “मनोनीत” पद के लिए हैं। विडंबना यह है कि इन सबके अलावा भी जो संभावित नाम हो सकते हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं, जो बिना सर्वश्रेष्ठ “भक्ति” साबित किए “राष्ट्रपति” की कृपा पा सकने में सक्षम हों। अपनी क्षमता भर सबने ऐसा किया ही है, या कर रहे हैं। हां, रूप-स्वरूप अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन “यह किए जाने” को हम इस तर्क से जस्टीफाई कर सकते हैं कि अगर हमारे “लोकतंत्र” के साठ से ज्यादा सालों का हासिल यही है कि देश के सबसे “पाक-साफ मंदिर” में जगह पाना है तो तमाम धतकर्मों में अपनी कुशलता दर्शानी होगी, तो वहां जाने की इच्छा रखने वालों का क्या गुनाह...!

रुकिए नहीं। लेकिन रुक कर थोड़ा देखना होगा। क्या आप शहाबुद्दीन, सूरजभान, राजा भैया, पप्पू यादव जैसे तमाम नामों के संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से परेशान होते हैं? बंदूक की बदौलत अपनी सियासी हैसियत कायम करने वालों से निश्चित तौर पर हमारी पवित्र प्रतिनिधि संस्थाओं की पवित्रता भंग होती है। बंदूक की बुनियाद पर पले-बढ़े लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल करके संसद या विधानसभाओं में पहुंचने पर हमें बहुत दुख होता है, लेकिन आश्चर्य... ((READ MORE))

Saturday, August 15, 2009

चंदन मित्रा के नाम एक खुला पत्र

परम आदरणीय चंदन मित्रा जी,


आपके दुख ने मुझे विचलित कर दिया है... आपके भावुकताभरे उदगार पढ़कर मेरी आंखें भर आयी हैं। आखिर आपके साथ ऐसा क्यों हुआ? जब आप छह साल में बड़ी मेहनत से संसद का कामकाज सीखकर पक्के हो गए थे, तो आपको निकाल दिया गया। भला ये भी कोई इंसाफ है? कुछ साल और नहीं रख सकते थे? माना कि आप बीजेपी खेमे के पत्रकार हैं, लेकिन अब आप कह तो रहे हैं कि संसद के भीतर निष्पक्षता से काम किया है। ये भी बता दिया है कि आपने कैसे अपने बाल-सखा अरुण जेटली के साथ मिलकर संसद में सरकार के साथ सहयोग किया। पिछले सत्र में हुए कामकाज की तारीफें भी कर रहे हैं। इतना कहने पर भी निष्ठुर सरकार मान नहीं रही।

अपनी निष्पक्षता और 'लचीलेपन' का सबूत तो आपने मतगणना के दौरान एक न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में बैठे-बैठे ही दे दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि आप कैसे बढ़चढ़ कर बीजेपी की ... (READ MORE)

Friday, August 14, 2009

चंदन मित्रा की सबसे बड़ी कामयाबी और सबसे बड़ा दुख

क्या किसी पत्रकार के लिए राज्यसभा में मनोनीत होना इतनी बड़ी कामयाबी हो सकती है कि उसके आगे ज़िंदगी के सभी काम बौने नज़र आने लगें? अगर ऐसा है तब तो सभी पत्रकारों का सिर्फ़ एक ही ध्येय होना चाहिए कि वो जनहित में नहीं बल्कि राज्यसभा में चुने जाने की शर्तों के आधार पर पत्रकारिता करें। लेकिन हमने और आपने ऐसे कई पत्रकारों को देखा है जिन्होंने पूरी ज़िंदगी कलम का मान रखा। सत्ता के सामने समर्पण की जगह सत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। जनहित की पत्रकारिता के लिए बहुत कुछ भोगा और सहा। लेकिन चंदन मित्रा जैसे कुछ पत्रकार हैं जिनके लिए राज्यसभा में मनोनीत होना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। चंदन मित्रा ने राज्यसभा से रिटायर होने के बाद द पायनियर में अपनी बात रखी है। वो राज्यसभा से रिटायर होने पर बहुत दुखी हैं। चंदन मित्रा कहते हैं कि अब उनके पास छह साल का अनुभव है और वो बेहतर तरीके से संसदीय व्यवस्था में योगदान कर सकते हैं। लेकिन अब वो राज्यसभा में नहीं हैं।

यही नहीं चंदन मित्रा संसदीय कामकाज की एक झलक भी पेश करते हैं। चंदन कहते हैं कि वो अपनी ज़िंदगी में एक रात भी किसी गांव में नहीं ठहरे हैं। लेकिन वो एक ऐसी स्थाई समिति का हिस्सा रहे जिसने नरेगा की समीक्षा की। आगे बढ़ने से पहले चंदन मित्रा के उस संस्मरण के कुछ हिस्से आप भी पढ़िए। ... READ MORE

Wednesday, August 12, 2009

राज्यसभा की रेस में हैं कई दिग्गज पत्रकार!

राज्यसभा से बीते हफ़्ते मनोनित सदस्यों की विदाई हो गई। विदा होने वालों में चंदन मित्रा भी रहे। राज्यसभा से जिस दिन विदाई हुई बताया जाता है कि चंदन मित्रा भावुक हो गए। सत्ता और भावुकता के बीच रिश्ता ही कुछ ऐसा है। जो कोई भी सत्ता से जाता है वो भावुक हो जाता है। लेकिन यहां मुद्दा भावुकता का नहीं है। मुद्दा है कि फिर से कुछ नामी गिरामी चेहरे राज्यसभा के लिए मनोनित होने वाले हैं। चंदन मित्रा के जाने से जो स्थान खाली हुआ है उसे भरने के लिए कई बड़े पत्रकार इन दिनों सेटिंग-गेटिंग करने में लगे हैं। सत्ता के गलियारों से छन छन कर जो ख़बर आ रही है, उसके मुताबिक शेखर गुप्ता, आलोक मेहता, वीर सांघवी, विनोद मेहता , पंकज वोहरा और मृणाल पांडे राज्यसभा की रेस में हैं।

शेखर गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस के संपादक हैं। एनडीटीवी पर.... ((READ MORE))

Tuesday, August 11, 2009

ख़बर बनाने के लिए टीवी एंकर ने कराए पांच क़त्ल!

अभी तक आपने ख़बर के तौर पर सेक्स, क्राइम और अंधविश्वास बेचते तो सुना था। पैसे कमाने के लिए ख़बरों का धंधा भी करते सुना था। लेकिन क्या कोई ख़बरों के लिए किसी का क़त्ल करा सकता है। ये सोचने में हैरानी होती है। लेकिन ब्राजील में पुलिस ने एक टीवी एंकर पर कार्यक्रम की रेटिंग बढ़ाने के लिए और ड्रग्स तस्करी के धंधे में फायदे के लिए कई लोगों की हत्या कराने का आरोप लगाया है। इस टीवी एंकर का नाम है वालास सूजा। वालास सूजा कुछ समय के लिए पुलिस में भी काम कर चुके हैं और इस वक़्त टीवी एंकरिंग के साथ सियासत भी कर रहे हैं। वो अभी ब्राजील के अमेजोनास प्रांत के एक इलाके के प्रतिनिधि हैं।

ब्राजीली पुलिस के मुताबिक वालास का दखल ड्रग्स की तस्करी में भी है। इसी धंधे को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अलग-अलग वारदात में पांच लोगों की ... read more

गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की लड़ाई में फेसबुक भी कूदा

गूगल ने एक बड़े राज़ से पर्दा उठा दिया है। गूगल की टीम पिछले कई महीने से एक नए सर्च इंजन पर काम कर रही है। एक ऐसा सर्च इंजन जो नई पीढ़ी की जरूरत के हिसाब से हो। इसके लिए गूगल ने चुपके से फीडबैक मंगाने शुरू कर दिया है। वेबसर्च के इस नए सिस्टम का नाम कैफीन रखा गया

आमतौर पर गूगल अपने सर्च इंजन में कुछ न कुछ बदवाल करता आया है। लेकिन 2006 के बाद बड़े स्तर पर कोई बदला नहीं हुआ है। गूगल के इंजीनियरों के मुताबिक किसी भी सर्च इंजन को तैयार करने में तीन मुख्य बातों का ध्यान रखना होता है। एक जितनी भी कमांड के तुरंत बाद वेब पर मौजूद अरबों पन्नों में से जरूरत के पन्नों को छांटना। फिर तेजी से उन्हें एक क्रम में लगाना और उसके बाद रैंक और रेटिंग के हिसाब से उन्हें सर्च इंजन पर पेश करना। इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर पहले से कहीं अधिक बेहतर .... (READ MORE)

मीडिया को हॉलीवुड अभिनेत्री की धमकी

हॉलीवुड अभिनेत्री एशले ग्रीन ने दुनिया भर की न्यूज़ और इंटरटेनमेंट वेबसाइटों को चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि अगर किसी ने ग़लती से भी उनकी न्यूड तस्वीरें छापी तो उसके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। सोमवार को किसी ने उनकी ऐसी तस्वीरें इंटरनेट पर डाल दी। इससे एशले ... ((READ MORE))

Monday, August 10, 2009

प्रभात ख़बर, हरिवंश और उनका नीतीश प्रेम

अगर एक अखबार किसी भी सरकारी नीति के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन के प्रति इस हद तक आक्रामक हो जाए कि समाज से इसके विरुद्ध खड़ा होने का आह्वान करने लगे, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके इस पक्ष के निहितार्थ क्या होंगे और एक अखबार जब खुलेआम एक पक्ष बन जाता है तो कितना बुरा हो सकता है। राजू रंजन जी ने अपने लेख में इस मसले पर काफी कुछ कह दिया है और वे ठीक कहते हैं कि दूसरों की अयोग्यता पर अंगुली उठाने वालों को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।

उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी मांगों के लेकर नवनियुक्त शिक्षा मित्रों के आंदोलन के प्रति अपने घृणा-प्रदर्शन के बाद ‘प्रभात खबर’ को इस बात का अहसास हो कि उसने क्या किया है। ‘हे ईश्वर, इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’- जैसा जुमला उछालने के तत्काल बाद इस अखबार में ‘दर्शक’ के नाम से प्रकाशित लंबे लेख में कहा जाता है कि इन शिक्षा मित्रों को नहीं पता कि बिहार का भविष्य इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। जैसे कि ये बिहार के भविष्य के नियंता हों और... ((READ MORE))

कोई अख़बार जवाब भी नहीं देता, बेशर्मी की हद है!

सियासतदानों और नौकरशाहों की बेशर्मी तो हमने और आपने बहुत देखी है। संसद से सड़क तक उनकी बेशर्मी के उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन अब मीडिया भी बेशर्मों की इस जमात में शामिल हो गया है। जनसत्ता में इस बार वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने मीडिया की इसी बेशर्मी से पर्दा उठाया है। उन्होंने कहा है कि चुनाव के दौरान ख़बरों का सौदा करने वाले अख़बार अपने अपराधों पर कोई बहस भी नहीं करना चाहते। प्रभाष जी ने अख़बारों की आलोचना के साथ साइबर स्पेस पर सक्रिय पत्रकारों की तारीफ़ भी की है। उन सभी से प्रभाष जी की अपील है कि वो इस बहस को ज़िंदा रखें। बहस जारी रही तो नए रास्ते भी खुलेंगे। जनसत्ता से साभार हम प्रभाष जोशी जी का ये लेख आपके बीच रख रहे हैं। आप भी पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए। .... ((read more))

Sunday, August 9, 2009

"आपसे आग्रह है कि ये बहस यहीं बंद कर दें"

दैनिक जागरण के वरिष्ठ फोटोग्राफर अजीत कुमार ने जनतंत्र को एक चिट्ठी भेजी है। इस चिट्ठी में भोले शंकर की तरह उन्होंने विष का प्याला पीते हुए कबूल किया है कि प्रकाश कुमार का फोटो उन्होंने ही जानबूझ कर ब्लर किया था और इसके लिए दैनिक जागरण के संपादक शैलेंद्र दीक्षित और ब्यूरो चीफ सुभाष पांडे को दोष देना सही नहीं है। उन्होंने ऐसा क्यों किया, इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं। उन तर्कों से आप सहमत हो सकते हैं और असहमत भी। लेकिन हम उनके इस साहस का सम्मान करते हुए दैनिक जागरण के फोटो प्रकरण पर चली बहस को यहीं रोकना चाहते हैं। वैसे भी इस बहस में अब कुछ बचा नहीं है। बातचीत मुद्दे से भटक कर निजी आरोप-प्रत्यारोप की तरफ मुड़ चुकी है। इसलिए हम अजीत कुमार की इस स्वीकारोक्ति को आपने सामने रख रहे हैं... इस उम्मीद में कि आप भी इस बहस को यहीं ख़त्म समझेंगे और मामले को ज़्यादा तूल नहीं देंगे।... ((read more))

Saturday, August 8, 2009

चुप्पी टूटेगी और टूटेंगे मीडिया के सभी मठ

किसी भी अख़बार को उठाइए और तमाम ख़बरों को पढ़िए। संपादकीय पृष्ठ पर मौजूद लेखों को भी पढ़िए। आप पाएंगे कि अख़बारों में आमतौर पर किसी शख़्स की आलोचना होती और किसी की तारीफ़। वो शख़्स कोई भी हो सकता है। मंत्री, नेता, अधिकारी, अभिनेता या फिर कारोबारी... कोई भी हो सकता है। आलोचना सभी की होती है। सवाल सभी पर खड़े किए जाते हैं। किसी न किसी मुद्दे पर और किसी न किसी वक़्त पर। यहां सवाल उठता है कि आखिर दूसरों की आलोचना करने वाले पत्रकारों का खुद की आलोचना को लेकर क्या रवैया रहता है?

ये एक सोचने लायक विषय है। स्वस्थ आलोचना और स्वस्थ बहस किसी भी लोकतंत्र के बुनियादी तत्व हैं। सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं होगी तो नीतियों में सुधार नहीं होगा। ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों और नेताओं के ग़लत कामों की समीक्षा नहीं होगी तो वो निरंकुश हो जाएंगे। इसलिए आलोचना बहुत ज़रूरी है और आलोचना के दौरान उठे मुद्दों पर व्यापक बहस भी उतनी ही ज़रूरी है। लेकिन क्या हम पत्रकार मीडिया से जुड़े मुद्दों पर और व्यक्तियों पर बहस के लिए तैयार हैं?

इस सवाल पर आप जितनी बार गौर कीजिएगा, आपको एक ही जवाब मिलेगा - नहीं। हम आलोचना के लिए ज़रा भी तैयार नहीं। कोई हमारी हल्की सी निंदा कर दे तो हम आसमान सिर पर उठा लेते हैं। बिफर पड़ते हैं। हम हमले करने का हौसला तो रखते हैं लेकिन हम पर कोई अंगुली उठा दे ..... READ MORE

Friday, August 7, 2009

मणिपुर में मीडिया पर हमला

मणिपुर की राजधानी इंफाल में एक स्थानीय अख़बार पावोजेल के दफ़्तर पर हमला हुआ है। हमला कर्फ्यू के दौरान गुरुवार की शाम को हुआ। उस वक़्त अख़बार के दफ़्तर में कुछ कर्मचारी काम कर रहे थे और किसी ने बाहर से गोली चला दी। ये कर्मचारियों की खुशकिस्मती है कि गोली से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। मणिपुर में 23 जुलाई को पुलिस कमांडो ने संजीत नाम के युवक की हत्या कर दी। मणिपुर पुलिस कमांडोज (एमपीसी) के मुताबिक संजीत को मुठभेड़ में मारा गया, लेकिन तहलका पर छपी तस्वीरें और स्थानीय लोग उसके दावे को खोखला साबित .... READ MORE

दैनिक जागरण और उसकी "फोटो कलाकारी"

दैनिक जागरण के हल्द्वानी संस्करण के 16वें पेज पर एक रंगीन तस्वीर छपी है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी खादी पहने, गांधी टोपी लगाए नमस्कार कर रहे हैं और बगल में दीया मिर्जा खड़ी हैं। नीचे कैप्शन दिया गया है "दिलकश दीया मिर्या ने राहुल गांधी के बारे में राय पूछे जाने पर कहा, मैं उन्हें पसंद करती हूं।"

उसी अख़बार में पृष्ठ संख्या 13 पर राहुल गांधी की एक और फोटो है। ये ब्लैक एंड व्हाइट है। इसमें भी राहुल ठीक उसी लिबास में और उसी मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े हैं। उनके पीछे मौजूद व्यक्ति भी वही है। बस यहां पर राहुल गांधी के बगल में हैं कांग्रेस नेता रीता बहुगुणा और सामने है एक कांग्रेस कार्यकर्ता – जो उन्हें सैल्यूट .... (READ MORE)

Thursday, August 6, 2009

“जिम्मेदारी तो संपादक को ही लेनी पड़ती है”

बिहार में दैनिक जागरण और उसके संपादक पर उठाए गए सवाल पर बहस अब तेज़ हो रही है। बहस का मुद्दा है कि अगर किसी अख़बार से कोई ग़लती हो गई हो तो उसके लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जाए? क्या किसी संपादक को यह हक़ है कि वह अख़बार की अच्छाइयों को कबूल करे लेकिन बुराइयों के लिए व्यवस्था को दोषी ठहरा कर पल्ला झाड़ ले? यहां बात किसी एक अख़बार या फिर किसी एक संपादक की नहीं है। बात पूरे मीडिया जगत की है। संकट विश्वास का है। जनतंत्र पर जारी इसी बहस को आगे बढ़ाने के लिए हमने बिहार के दो वरिष्ठ पत्रकारों से कुछ सवाल पूछे। उनके जवाब आपके सामने हैं। आप पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दें। .... ((READ MORE))

मीडिया में दफ़न हैं सुलगते मणिपुर की ख़बरें

क्या मणिपुर भारत का हिस्सा नहीं है? अगर है तो फिर मीडिया में उसके साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों? बीते दो हफ्तों से मणिपुर सुलग रहा है। सोमवार और मंगलवार को वहां पर व्यापक बंद रहा। लेकिन मीडिया में ख़बरों के नाम पर सन्नाटा पसरा हुआ है। ऐसा लगता है कि मणिपुर किसी और मुल्क का हिस्सा है और वहां हो रही घटनाओं से इस देश का और इसके लोगों को कोई वास्ता नहीं।

23 जुलाई को मणिपुर पुलिस कमांडो के छह जवानों ने मिल कर संजीत चोंग्खम नाम के एक युवक की हत्या कर दी। उस युवक को इंफाल में भरे बाज़ार गोली मारी गई। पुलिस के मुताबिक संजीत चोंग्खम एक उग्रवादी था। उसे जब पुलिस ने घेरा तो उसने रिवॉल्वर से गोली दागी। जवाबी कार्रवाई में मारा गया। लेकिन बाज़ार में मौजूद लोग पुलिस का सच और झूठ जानते थे। उन्होंने देखा कैसे संजीत को जवान लेकर वहां पहुंचे और फिर कैसे एक दुकान के भीतर उसे गोली मारी गई। और कैसे उसके शव को टांग कर बाहर लाया गया।

लोगों ने पुलिस का ये ख़ौफ़नाक चेहरा आंख के सामने देखा था। एक कान से दूसरे कान बात इतनी फैली की हंगामा खड़ा हो गया। कार्रवाई की मांग ... ((READ MORE))

Wednesday, August 5, 2009

शिक्षक नशेड़ी, गंजेड़ी हैं तो क्या पत्रकार संत हैं?

राजू रंजन प्रसाद प्रगतिशील विचारों वाले बेहद शालीन और सज्जन शख़्स हैं। इतिहास और समाजशास्त्र में गहरी पैठ है। पटना से उन्होंने पीएचडी की है। कुछ खास मसलों पर समझौता नहीं कर सके, इसलिए किसी कॉलेज में प्रोफेसर नहीं बन पाए। फिलहाल राज्य सरकार के एक स्कूल में नवनियुक्त शिक्षक हैं और पूरी ईमानदारी से बच्चों को पढ़ाते हैं। साहित्य और आलोचना में भी इन्होंने काफी काम किया है। हाल ही में पटना में जब अस्थाई शिक्षकों ने अपनी मांगों के साथ विरोध प्रदर्शन किया तो पुलिस ने शिक्षकों को दौड़ा-दौड़ा पीटा। उसके बाद कुछ पत्रकारों ने शिक्षकों की आलोचना शुरू की। आलोचना की एक मर्यादा होती है। लेकिन कई पत्रकार ये मर्यादा भी लांघ गए। राजू रंजन प्रसाद ऐसे तमाम पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि गिरावट कहां नहीं आई है? क्या पत्रकारिता का स्तर नहीं गिरा है? क्या पत्रकारों की भाषा नहीं बिगड़ी है? आप उनका ये लेख पढ़िये और हो सके तो उनके सवालों का अपने स्तर पर ही सही जवाब दीजिए।

नवनियोजित शिक्षकों के आन्दोलन की खबरें बिहार के अखबारों में ‘प्रभात खबर’ ने सबसे शानदार तरीके से छापीं लेकिन ‘सुशासनी।’ डांट से अब ये ‘उल्टी गंगा बहाने’ लगे हैं। अनुराग कश्यप, दर्शक (लेखक हैं तो बुर्के में क्यों हैं?) और सुरेन्द्र किशोर इन शिक्षकों को अयोग्य साबित करने पर तुले हैं। शायद कोई ‘सरकारी फरमान’ मिला हो या कि ‘राजकीय पत्रकार’ नियुक्त होने के लिए ये लोग भी ‘दक्षता परीक्षा’ से गुजर रहें हैं। अनुराग कश्यप जी शिक्षकों को गुटखा-पान खाने वाला बता कर अयोग्य घोषित करना चाहते हैं। अगर योग्यता-अयोग्यता का यह भी एक पैमाना है तो न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है कि मद्यपान का प्रतिशत पूरी दुनिया में और खासकर बिहार में, किसी भी अन्य पेशे के लोगों से ज्यादा पत्रकारों में है। यहां तो ‘पियक्कड़’ होना एक अच्छा पत्रकार होने की पूर्व शर्त की तरह है। आप पत्रकार हैं तो मालूम ही होगा कि .... READ MORE

Tuesday, August 4, 2009

पत्रकार का क़ातिल जैश मोहम्मद का आतंकी

इराक में एक आतंकवादी ने पत्रकार अतवार बहजत के बलात्कार और क़त्ल का गुनाह कबूल कर लिया है। 22 फरवरी 2006 को अल अरेबिया की रिपोर्टर और एंकर अतवार की बगदाद में हत्या कर दी गई थी। जांच एजेंसियों ने उस आतंकवादी का वीडियो भी जारी किया है।
जांच एजेंसियों के मुताबिक जैश मोहम्मद के आतंकी यासिर अल तखी ने अपने दो भाइयों और एक साथी के साथ मिल कर अतवार और उनकी टीम का अपहरण किया। फिर उसके दोनों भाइयों ने अतवार के कैमरामैन अदनान अब्दुल्ला और साउंड इंजीनियर खालिद मोहसिन की हत्या कर दी। जबकि उनका चौथा साथी किसी तरह भागने में कामयाब हो गया। उसके बाद यासिर ने बंदूक की नोक पर अतवार का बलात्कार किया और गोली मार दी। जांच अधिकारियों के मुताबिक ... ((READ MORE))

संस्कृति के रक्षकों कहो- किसकी रोटी में किसका लहू है?

भारतीय संस्कृति अक्सर खतरे में पड़ जाती है। और फिर उसे बचाने के लिए बहुत से लोग कमर कसने लगते हैं। लेकिन संस्कृति है कि फिर से खतरे में पड़ जाती है....अपनी इस महान संस्कृति को कभी सविता भाभी खतरे में डाल देती हैं, तो कभी सच का सामना इसे तार-तार करने पर उतारू हो जाता है। कभी सहमत की प्रदर्शनी इसकी दुश्मन बन जाती है, तो कभी मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग इस पर कालिख पोतने लगती है। भारतीय संस्कृति के रक्षकों को बड़ा गुस्सा आता है। वो सबकुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन संस्कृति पर हमला? इसे तो हरगिज़ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सबका गुस्सा देख कई बार मुझे भी लगता है, इतने समझदार लोग गुस्सा कर रहे हैं, ज़रूर कोई वाज़िब बात होगी। आखिर हम भारतवासी हैं, भारतीय संस्कृति पर हमला कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? सोचता हूं मुझे भी संस्कृति की रक्षा में जुटे लोगों का साथ देना चाहिए।

भारतीय संस्कृति की रक्षा का फैसला कर तो लिया, लेकिन इस पर अमल कैसे करूं समझ नहीं आ रहा। आखिर जिसकी रक्षा करनी है, उसका अता-पता, उसकी पहचान तो मालूम होनी चाहिए। दिक्कत यहीं है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि आखिर ये भारतीय संस्कृति है क्या चीज़? एक बार संघ प्रशिक्षित एक वीएचपी नेता ने मुझे समझाया था कि हिंदू - मुसलमान एक मुल्क में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उनकी दलील थी - दोनों की संस्कृति अलग है। हिंदू पूरब की ओर मुंह करके पूजा करता है, मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके। हिंदू हाथ धोते हुए कोहनी से हथेली की ओर पानी डालता है, मुसलमान वज़ू करते हुए पहले हथेली में पानी लेता है, फिर कोहनी तक ले जाता है। हिंदू का तवा बीच में गहरा होता है, मुसलमान का बीच में उठा हुआ होता है...कितनी अलग है दोनों की संस्कृति...कैसे रह सकते हैं साथ-साथ? आशय ये था कि हिंदू-मुसलमान की राष्ट्रीयता .... (( READ MORE))

Monday, August 3, 2009

"40 हज़ार कोड़े सह सकती हूं, अपमान नहीं"

"मैं इस मामले को ऊपरी अदालत तक ले जाऊंगी। अगर जरूरत पड़ी तो संविधान पीठ तक। अगर वहां भी मुझे गुनहगार ठहराया गया तो मैं चालीस कोड़े खाने को तैयार हूं। सिर्फ चालीस क्यों, मैं चालीस हज़ार कोड़े खाने को तैयार हूं। अगर सभी महिलाएं सिर्फ पहनावे को लेकर कोड़े खाने की हक़दार हैं तो मुझ पर भी चालीस हज़ार कोड़े बरसाए जाएं।"

ये कहना है सूडान की पत्रकार लुबना अहमद अल हुसैन का। लुबना समेत तीन महिलाएं पैंट पहनने के कारण अभद्र व्यवहार की आरोपी हैं। लुबना के मुताबिक उन्हें कोड़े बर्दाश्त हैं लेकिन अपमान बर्दाश्त नहीं। वो इसे नारी जाति का अपमान मानती हैं। मानवता का अपमान मानती हैं। लुबना चाहती तो इस मुकदमे से बच सकती थीं। संयुक्त राष्ट्र की कर्मचारी होने के नाते ..... READ MORE

ये संपादक तो बड़ा ख़तरनाक है

क्या किसी पत्रकार को ये हक़ है कि वो निजी खुन्नस निकालने में अपने संस्थान का इस्तेमाल करे? इस सवाल का सीधा जवाब है - नहीं। किसी भी पत्रकार को ऐसा नहीं करना चाहिए और ना ही उसे ये हक़ दिया जाना चाहिए। इसी सिलसिले में दिल्ली के एक मीडिया संस्थान का एक वाकया ध्यान आ रहा है। वहां के एक कर्मचारी ने किसी इंस्टीट्यूट को डराने के लिए संस्थान का बेजा इस्तेमाल कर दिया था। इंस्टीट्यूट की तरफ से शिकायत मिलने पर उस कर्मचारी को नौकरी छोड़नी पड़ी। लेकिन आप हर कंपनी से ऐसी आचार संहिता की उम्मीद नहीं कर सकते। खासकर जब वो कंपनी अपने कर्मचारियों का इस्तेमाल अनैतिक तरीके से धन जुटाने में करती हो।

तीस जुलाई को पटना के दैनिक जागरण में एक तस्वीर छपी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस की। जॉर्ज राज्यसभा का पर्चा भरने के लिए पटना पहुंचे हुए थे। ये तस्वीर मोर्या होटल में खींची गई थी। जॉर्ज और नीतीश के पीछे पटना के ही एक वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमार मौजूद थे। बताया जाता है कि प्रकाश कुमार और दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक शैलेंद्र दीक्षित से रिश्ते ठीक नहीं हैं। दोनों में झगड़ा है। झगड़ा की जगह खुन्नस शब्द ज़्यादा बेहतर रहेगा। दोस्ती की तरह खुन्नस भी निजी होती है। बेहद निजी। लेकिन दैनिक जागरण के संपादक ने निजी खुन्नस बेहद ओछे तरीके से सार्वजनिक.... ((READ MORE))

एक मिनट रुकिए, पुलिस का क्रूर चेहरा देखिए

अभी जनतंत्र पर चल रही बहस को बीच में रोकते हुए आप सभी से तहलका डॉट कॉम पर छपी एक ख़बर पढ़ने की गुजारिश कर रहा हूं। उस ख़बर का हेडर है मर्डर इन प्लेन साइट। ऐसी ख़बरें बहुत कम ही पढ़ने, देखने और सुनने को मिलती हैं। हम सब जानते हैं कि किस तरह सुरक्षाबल अपने अधिकार का बेजा इस्तेमाल करके बेकसूर लोगों को गोलियों से छलनी करते हैं। ये राज्य का आतंकवाद है जिसके आगे किसी भी तरह का आतंकवाद अदना सा लगता है। जम्मू कश्मीर, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व ज़्यादातर राज्यों में इस आतंकवाद का घिनौना चेहरा देखने को मिल जाएगा। तहलका ने जिस चेहरे को उजागर किया है वो चेहरा मणिपुर का है।

23 जुलाई को इंफाल में संजीत नाम का एक युवक मुठभेड़ में मारा जाता है। मणिपुर पुलिस कमांडो के जवान उसे घेर कर मार ..... READ MORE

Sunday, August 2, 2009

“नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक “अनवर” है”

अनवर जमाल अशरफ़के लेख के बाद "सच का सामना" पर होने वाली बहस ने नया मोड़ ले लिया है। समरेंद्र के दोनों लेख - लूटपाट, क़त्ल और व्यभिचार के लिए एकजुट हों ! और सबसे पहले तो बंद करो “सच का सामना” में संस्कृति की बात कहीं नहीं थी। लेकिन अनवर के लेख के बाद अब सारा ध्यान भारतीय संस्कृति पर केंद्रित हो गया है। हालांकि अनवर ने भाड़ शब्द का इस्तेमाल एक मुहावरे के तौर पर किया है, लेकिन विरोध करने वालों को सबसे ज़्यादा एतराज इसी बात का है कि लेखक ने भारत की महान संस्कृति को भाड़ में क्यों झोंक दिया? इससे लगता है कि क्यों नहीं जनतंत्र पर एक बहस भारतीय संस्कृति पर भी हो जाए। जो भी इस महान संस्कृति पर अपनी बात रखना चाहते हैं वो खुल कर कहें। हम उनकी राय को सम्मान पूर्वक जगह देंगे। इसकी शुरुआत करते हैं अनवर के लेख पर आई कुछ जोरदार टिप्पणियों से। आप इन्हें पढ़ें और सहमति-असहमति दर्ज कराएं।

अनवर के लेख पर काफी बहस हुई है। लेकिन इस बहस में लेख के मुख्य विषय से ज़्यादा ज़ोर एक खास वाक्य पर है। बहुत से लोगों को एतराज़ है कि अनवर ने "भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति क्यों लिख दिया।" हालांकि अनवर ने ये नहीं लिखा कि भारतीय संस्कृति भाड़ में जाए। इसके ठीक उलट पूरे लेख को पढ़ें, तो उनकी ये राय साफ ज़ाहिर होती है कि भारतीय संस्कृति इतनी मज़बूत है कि एक टीवी शो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसी बात को और भी ज़ोर देकर और चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में कहने के लिए ही उन्होंने लिखा है कि "अगर आधे घंटे का एक टेलीविज़न शो सदियों पुरानी संस्कृति को उखाड़ फेंक रहा हो, तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति।" इस वाक्य का ये अर्थ निकालना कि लेखक भारतीय संस्कृति को भाड़ में झोंकना चाहते हैं, भाषाई अभिव्यक्ति की कच्ची समझ के सिवा कुछ नहीं है। पहला वाक्य अगर ठीक से समझ में न आ रहा हो, तो भी पूरे लेख को पढ़ने के बाद तो लेखक की राय समझ में आ ही जानी चाहिए। अंतिम पैराग्राफ से ठीक पहले वाले पैराग्राफ में अनवर ने लिखा है, "अगर वाक़ई शो संस्कृति को मार रहा हो, तो फिर संस्कृति ही इसे मार देगी। भारत की संस्कृति कोई जुमा जुमा आठ दिन की संस्कृति तो है नहीं।" इसके बाद भी कुछ लोग पता नहीं क्यों इतने भड़के हुए हैं? कहीं इसके पीछे वजह ये तो नहीं कि लेख 'अनवर जमाल अशरफ' ने लिखा है?
- अनिकेत

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"नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक "अनवर" है"

अनवर जमाल अशरफ़ के लेख के बाद "सच का सामना" पर होने वाली बहस ने नया मोड़ ले लिया है। समरेंद्र के दोनों लेख - लूटपाट, क़त्ल और व्यभिचार के लिए एकजुट हों और सबसे पहले तो बंद करो “सच का सामना” में संस्कृति की बात कहीं नहीं थी। लेकिन अनवर के लेख के बाद अब सारा ध्यान भारतीय संस्कृति पर केंद्रित हो गया है। हालांकि अनवर ने भाड़ शब्द का इस्तेमाल एक मुहावरे के तौर पर किया है, लेकिन विरोध करने वालों को सबसे ज़्यादा एतराज इसी बात का है कि लेखक ने भारत की महान संस्कृति को भाड़ में क्यों झोंक दिया? इससे लगता है कि क्यों नहीं जनतंत्र पर एक बहस भारतीय संस्कृति पर भी हो जाए। जो भी इस महान संस्कृति पर अपनी बात रखना चाहते हैं वो खुल कर कहें। हम उनकी राय को सम्मान पूर्वक जगह देंगे। इसकी शुरुआत करते हैं अनवर के लेख पर आई कुछ जोरदार टिप्पणियों से। आप इन्हें पढ़ें और सहमति-असहमति दर्ज कराएं। .... ((READ MORE))

ये नीतीश की उदारता नहीं चालाकी है

जिन आंखों में समाजवाद का सपना तैरता हो, उन्होंने ना जाने कितनी बार जॉर्ज फर्नांडीस पर अभिमान किया होगा। 60 और 70 के दशक के जॉर्ज को देखकर ये उम्मीद जगती थी कि हुकूमतें चाहे कितनी भी जालिम हों, उनके खिलाफ एक जॉर्ज है, जो जान की बाजी लगाकर खड़ा होने को तैयार रहता है। इमरजेंसी के बाद हाथों में हथकड़ी लगी जॉर्ज की तस्वीर ने जॉर्ज को कइयों का आदर्श और हीरो बना दिया था। जॉर्ज कम्युनिस्ट तो कभी नहीं रहे लेकिन चे गुएवारा की याद को भारतीय मानस पर उन्होंने जरूर उतार दिया था। लेकिन नब्बे का दशक आते आते उन्हीं जॉर्ज के मुंह से समाजवाद की बातें हास्यास्पद लगने लगीं। ... ((READ MORE))

Saturday, August 1, 2009

"ट्रस्ट नहीं बनने दिया, इसलिए निशाने पर हूं"

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेंबर में जो कुछ भी हुआ उस पर वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमार अफसोस जाहिर कर चुके हैं। कन्हैया भेलारी भी उस घटना को शर्मनाक बता रहे हैं। वो मानते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए था जिससे प्रकाश कुमार के सम्मान को ठेस पहुंची। लेकिन उनका ये भी कहना है कि प्रकाश को उनका मजाक पसंद नहीं आया तो वो शब्दों के जरिए विरोध जता सकते थे। जनतंत्र से वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी की बातचीत।


सवाल – मुख्यमंत्री के चेंबर में आखिर झगड़े की नौबत क्यों आई? प्रकाश से आपका झगड़ा किस बात पर हुआ?
कन्हैया भेलारी - मैं जब मुख्यमंत्री के चेंबर में घुसा तब वहां पहले से क्या बातचीत चल रही थी इसका मुझे अंदाजा नहीं था। मैंने जब .... (READ MORE)