Sunday, August 23, 2009
वॉयस ऑफ इंडिया का प्रसारण फिर शुरू
Friday, August 21, 2009
“वॉयस ऑफ इंडिया” ख़ामोश
प्रभाष जी की पंडिताई में तथ्यों की ऐसी-तैसी
हर चीज को जाति के चश्मे से मत देखिए प्रभाष जी
क्या यही आपकी परंपरा है प्रभाष जी?
Wednesday, August 19, 2009
ब्रह्म से संवाद करते ब्राह्मण यानी प्रभाष जोशी का विराट रूप देखिए
सहारा के कर्मचारी नहीं करेंगे सरेंडर
Tuesday, August 18, 2009
सहारा में सुनामी, 48 कर्मचारियों से मांगा इस्तीफ़ा
Sunday, August 16, 2009
यहां "शहाबुद्दीन”, “बजाज” और “ये पत्रकार” एक जैसे हैं!
राज्य (राज) सभा में जाने लायक जितने भी नाम आपने गिनाए हैं, वे सभी शायद एक “मनोनीत” पद के लिए हैं। विडंबना यह है कि इन सबके अलावा भी जो संभावित नाम हो सकते हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं, जो बिना सर्वश्रेष्ठ “भक्ति” साबित किए “राष्ट्रपति” की कृपा पा सकने में सक्षम हों। अपनी क्षमता भर सबने ऐसा किया ही है, या कर रहे हैं। हां, रूप-स्वरूप अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन “यह किए जाने” को हम इस तर्क से जस्टीफाई कर सकते हैं कि अगर हमारे “लोकतंत्र” के साठ से ज्यादा सालों का हासिल यही है कि देश के सबसे “पाक-साफ मंदिर” में जगह पाना है तो तमाम धतकर्मों में अपनी कुशलता दर्शानी होगी, तो वहां जाने की इच्छा रखने वालों का क्या गुनाह...!
रुकिए नहीं। लेकिन रुक कर थोड़ा देखना होगा। क्या आप शहाबुद्दीन, सूरजभान, राजा भैया, पप्पू यादव जैसे तमाम नामों के संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से परेशान होते हैं? बंदूक की बदौलत अपनी सियासी हैसियत कायम करने वालों से निश्चित तौर पर हमारी पवित्र प्रतिनिधि संस्थाओं की पवित्रता भंग होती है। बंदूक की बुनियाद पर पले-बढ़े लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल करके संसद या विधानसभाओं में पहुंचने पर हमें बहुत दुख होता है, लेकिन आश्चर्य... ((READ MORE))
Saturday, August 15, 2009
चंदन मित्रा के नाम एक खुला पत्र
परम आदरणीय चंदन मित्रा जी,
आपके दुख ने मुझे विचलित कर दिया है... आपके भावुकताभरे उदगार पढ़कर मेरी आंखें भर आयी हैं। आखिर आपके साथ ऐसा क्यों हुआ? जब आप छह साल में बड़ी मेहनत से संसद का कामकाज सीखकर पक्के हो गए थे, तो आपको निकाल दिया गया। भला ये भी कोई इंसाफ है? कुछ साल और नहीं रख सकते थे? माना कि आप बीजेपी खेमे के पत्रकार हैं, लेकिन अब आप कह तो रहे हैं कि संसद के भीतर निष्पक्षता से काम किया है। ये भी बता दिया है कि आपने कैसे अपने बाल-सखा अरुण जेटली के साथ मिलकर संसद में सरकार के साथ सहयोग किया। पिछले सत्र में हुए कामकाज की तारीफें भी कर रहे हैं। इतना कहने पर भी निष्ठुर सरकार मान नहीं रही।
अपनी निष्पक्षता और 'लचीलेपन' का सबूत तो आपने मतगणना के दौरान एक न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में बैठे-बैठे ही दे दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि आप कैसे बढ़चढ़ कर बीजेपी की ... (READ MORE)
Friday, August 14, 2009
चंदन मित्रा की सबसे बड़ी कामयाबी और सबसे बड़ा दुख
क्या किसी पत्रकार के लिए राज्यसभा में मनोनीत होना इतनी बड़ी कामयाबी हो सकती है कि उसके आगे ज़िंदगी के सभी काम बौने नज़र आने लगें? अगर ऐसा है तब तो सभी पत्रकारों का सिर्फ़ एक ही ध्येय होना चाहिए कि वो जनहित में नहीं बल्कि राज्यसभा में चुने जाने की शर्तों के आधार पर पत्रकारिता करें। लेकिन हमने और आपने ऐसे कई पत्रकारों को देखा है जिन्होंने पूरी ज़िंदगी कलम का मान रखा। सत्ता के सामने समर्पण की जगह सत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। जनहित की पत्रकारिता के लिए बहुत कुछ भोगा और सहा। लेकिन चंदन मित्रा जैसे कुछ पत्रकार हैं जिनके लिए राज्यसभा में मनोनीत होना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। चंदन मित्रा ने राज्यसभा से रिटायर होने के बाद द पायनियर में अपनी बात रखी है। वो राज्यसभा से रिटायर होने पर बहुत दुखी हैं। चंदन मित्रा कहते हैं कि अब उनके पास छह साल का अनुभव है और वो बेहतर तरीके से संसदीय व्यवस्था में योगदान कर सकते हैं। लेकिन अब वो राज्यसभा में नहीं हैं।
यही नहीं चंदन मित्रा संसदीय कामकाज की एक झलक भी पेश करते हैं। चंदन कहते हैं कि वो अपनी ज़िंदगी में एक रात भी किसी गांव में नहीं ठहरे हैं। लेकिन वो एक ऐसी स्थाई समिति का हिस्सा रहे जिसने नरेगा की समीक्षा की। आगे बढ़ने से पहले चंदन मित्रा के उस संस्मरण के कुछ हिस्से आप भी पढ़िए। ... READ MORE
Wednesday, August 12, 2009
राज्यसभा की रेस में हैं कई दिग्गज पत्रकार!
Tuesday, August 11, 2009
ख़बर बनाने के लिए टीवी एंकर ने कराए पांच क़त्ल!
गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की लड़ाई में फेसबुक भी कूदा
गूगल ने एक बड़े राज़ से पर्दा उठा दिया है। गूगल की टीम पिछले कई महीने से एक नए सर्च इंजन पर काम कर रही है। एक ऐसा सर्च इंजन जो नई पीढ़ी की जरूरत के हिसाब से हो। इसके लिए गूगल ने चुपके से फीडबैक मंगाने शुरू कर दिया है। वेबसर्च के इस नए सिस्टम का नाम कैफीन रखा गया
आमतौर पर गूगल अपने सर्च इंजन में कुछ न कुछ बदवाल करता आया है। लेकिन 2006 के बाद बड़े स्तर पर कोई बदला नहीं हुआ है। गूगल के इंजीनियरों के मुताबिक किसी भी सर्च इंजन को तैयार करने में तीन मुख्य बातों का ध्यान रखना होता है। एक जितनी भी कमांड के तुरंत बाद वेब पर मौजूद अरबों पन्नों में से जरूरत के पन्नों को छांटना। फिर तेजी से उन्हें एक क्रम में लगाना और उसके बाद रैंक और रेटिंग के हिसाब से उन्हें सर्च इंजन पर पेश करना। इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर पहले से कहीं अधिक बेहतर .... (READ MORE)
मीडिया को हॉलीवुड अभिनेत्री की धमकी
Monday, August 10, 2009
प्रभात ख़बर, हरिवंश और उनका नीतीश प्रेम
अगर एक अखबार किसी भी सरकारी नीति के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन के प्रति इस हद तक आक्रामक हो जाए कि समाज से इसके विरुद्ध खड़ा होने का आह्वान करने लगे, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके इस पक्ष के निहितार्थ क्या होंगे और एक अखबार जब खुलेआम एक पक्ष बन जाता है तो कितना बुरा हो सकता है। राजू रंजन जी ने अपने लेख में इस मसले पर काफी कुछ कह दिया है और वे ठीक कहते हैं कि दूसरों की अयोग्यता पर अंगुली उठाने वालों को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी मांगों के लेकर नवनियुक्त शिक्षा मित्रों के आंदोलन के प्रति अपने घृणा-प्रदर्शन के बाद ‘प्रभात खबर’ को इस बात का अहसास हो कि उसने क्या किया है। ‘हे ईश्वर, इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’- जैसा जुमला उछालने के तत्काल बाद इस अखबार में ‘दर्शक’ के नाम से प्रकाशित लंबे लेख में कहा जाता है कि इन शिक्षा मित्रों को नहीं पता कि बिहार का भविष्य इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। जैसे कि ये बिहार के भविष्य के नियंता हों और... ((READ MORE))
कोई अख़बार जवाब भी नहीं देता, बेशर्मी की हद है!
Sunday, August 9, 2009
"आपसे आग्रह है कि ये बहस यहीं बंद कर दें"
Saturday, August 8, 2009
चुप्पी टूटेगी और टूटेंगे मीडिया के सभी मठ
Friday, August 7, 2009
मणिपुर में मीडिया पर हमला
दैनिक जागरण और उसकी "फोटो कलाकारी"
उसी अख़बार में पृष्ठ संख्या 13 पर राहुल गांधी की एक और फोटो है। ये ब्लैक एंड व्हाइट है। इसमें भी राहुल ठीक उसी लिबास में और उसी मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े हैं। उनके पीछे मौजूद व्यक्ति भी वही है। बस यहां पर राहुल गांधी के बगल में हैं कांग्रेस नेता रीता बहुगुणा और सामने है एक कांग्रेस कार्यकर्ता – जो उन्हें सैल्यूट .... (READ MORE)
Thursday, August 6, 2009
“जिम्मेदारी तो संपादक को ही लेनी पड़ती है”
मीडिया में दफ़न हैं सुलगते मणिपुर की ख़बरें
Wednesday, August 5, 2009
शिक्षक नशेड़ी, गंजेड़ी हैं तो क्या पत्रकार संत हैं?
राजू रंजन प्रसाद प्रगतिशील विचारों वाले बेहद शालीन और सज्जन शख़्स हैं। इतिहास और समाजशास्त्र में गहरी पैठ है। पटना से उन्होंने पीएचडी की है। कुछ खास मसलों पर समझौता नहीं कर सके, इसलिए किसी कॉलेज में प्रोफेसर नहीं बन पाए। फिलहाल राज्य सरकार के एक स्कूल में नवनियुक्त शिक्षक हैं और पूरी ईमानदारी से बच्चों को पढ़ाते हैं। साहित्य और आलोचना में भी इन्होंने काफी काम किया है। हाल ही में पटना में जब अस्थाई शिक्षकों ने अपनी मांगों के साथ विरोध प्रदर्शन किया तो पुलिस ने शिक्षकों को दौड़ा-दौड़ा पीटा। उसके बाद कुछ पत्रकारों ने शिक्षकों की आलोचना शुरू की। आलोचना की एक मर्यादा होती है। लेकिन कई पत्रकार ये मर्यादा भी लांघ गए। राजू रंजन प्रसाद ऐसे तमाम पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि गिरावट कहां नहीं आई है? क्या पत्रकारिता का स्तर नहीं गिरा है? क्या पत्रकारों की भाषा नहीं बिगड़ी है? आप उनका ये लेख पढ़िये और हो सके तो उनके सवालों का अपने स्तर पर ही सही जवाब दीजिए।
Tuesday, August 4, 2009
पत्रकार का क़ातिल जैश मोहम्मद का आतंकी
जांच एजेंसियों के मुताबिक जैश मोहम्मद के आतंकी यासिर अल तखी ने अपने दो भाइयों और एक साथी के साथ मिल कर अतवार और उनकी टीम का अपहरण किया। फिर उसके दोनों भाइयों ने अतवार के कैमरामैन अदनान अब्दुल्ला और साउंड इंजीनियर खालिद मोहसिन की हत्या कर दी। जबकि उनका चौथा साथी किसी तरह भागने में कामयाब हो गया। उसके बाद यासिर ने बंदूक की नोक पर अतवार का बलात्कार किया और गोली मार दी। जांच अधिकारियों के मुताबिक ... ((READ MORE))
संस्कृति के रक्षकों कहो- किसकी रोटी में किसका लहू है?
भारतीय संस्कृति की रक्षा का फैसला कर तो लिया, लेकिन इस पर अमल कैसे करूं समझ नहीं आ रहा। आखिर जिसकी रक्षा करनी है, उसका अता-पता, उसकी पहचान तो मालूम होनी चाहिए। दिक्कत यहीं है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि आखिर ये भारतीय संस्कृति है क्या चीज़? एक बार संघ प्रशिक्षित एक वीएचपी नेता ने मुझे समझाया था कि हिंदू - मुसलमान एक मुल्क में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उनकी दलील थी - दोनों की संस्कृति अलग है। हिंदू पूरब की ओर मुंह करके पूजा करता है, मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके। हिंदू हाथ धोते हुए कोहनी से हथेली की ओर पानी डालता है, मुसलमान वज़ू करते हुए पहले हथेली में पानी लेता है, फिर कोहनी तक ले जाता है। हिंदू का तवा बीच में गहरा होता है, मुसलमान का बीच में उठा हुआ होता है...कितनी अलग है दोनों की संस्कृति...कैसे रह सकते हैं साथ-साथ? आशय ये था कि हिंदू-मुसलमान की राष्ट्रीयता .... (( READ MORE))
Monday, August 3, 2009
"40 हज़ार कोड़े सह सकती हूं, अपमान नहीं"
ये कहना है सूडान की पत्रकार लुबना अहमद अल हुसैन का। लुबना समेत तीन महिलाएं पैंट पहनने के कारण अभद्र व्यवहार की आरोपी हैं। लुबना के मुताबिक उन्हें कोड़े बर्दाश्त हैं लेकिन अपमान बर्दाश्त नहीं। वो इसे नारी जाति का अपमान मानती हैं। मानवता का अपमान मानती हैं। लुबना चाहती तो इस मुकदमे से बच सकती थीं। संयुक्त राष्ट्र की कर्मचारी होने के नाते ..... READ MORE
ये संपादक तो बड़ा ख़तरनाक है
एक मिनट रुकिए, पुलिस का क्रूर चेहरा देखिए
अभी जनतंत्र पर चल रही बहस को बीच में रोकते हुए आप सभी से तहलका डॉट कॉम पर छपी एक ख़बर पढ़ने की गुजारिश कर रहा हूं। उस ख़बर का हेडर है मर्डर इन प्लेन साइट। ऐसी ख़बरें बहुत कम ही पढ़ने, देखने और सुनने को मिलती हैं। हम सब जानते हैं कि किस तरह सुरक्षाबल अपने अधिकार का बेजा इस्तेमाल करके बेकसूर लोगों को गोलियों से छलनी करते हैं। ये राज्य का आतंकवाद है जिसके आगे किसी भी तरह का आतंकवाद अदना सा लगता है। जम्मू कश्मीर, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व ज़्यादातर राज्यों में इस आतंकवाद का घिनौना चेहरा देखने को मिल जाएगा। तहलका ने जिस चेहरे को उजागर किया है वो चेहरा मणिपुर का है।
23 जुलाई को इंफाल में संजीत नाम का एक युवक मुठभेड़ में मारा जाता है। मणिपुर पुलिस कमांडो के जवान उसे घेर कर मार ..... READ MORE
Sunday, August 2, 2009
“नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक “अनवर” है”
अनवर के लेख पर काफी बहस हुई है। लेकिन इस बहस में लेख के मुख्य विषय से ज़्यादा ज़ोर एक खास वाक्य पर है। बहुत से लोगों को एतराज़ है कि अनवर ने "भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति क्यों लिख दिया।" हालांकि अनवर ने ये नहीं लिखा कि भारतीय संस्कृति भाड़ में जाए। इसके ठीक उलट पूरे लेख को पढ़ें, तो उनकी ये राय साफ ज़ाहिर होती है कि भारतीय संस्कृति इतनी मज़बूत है कि एक टीवी शो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसी बात को और भी ज़ोर देकर और चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में कहने के लिए ही उन्होंने लिखा है कि "अगर आधे घंटे का एक टेलीविज़न शो सदियों पुरानी संस्कृति को उखाड़ फेंक रहा हो, तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति।" इस वाक्य का ये अर्थ निकालना कि लेखक भारतीय संस्कृति को भाड़ में झोंकना चाहते हैं, भाषाई अभिव्यक्ति की कच्ची समझ के सिवा कुछ नहीं है। पहला वाक्य अगर ठीक से समझ में न आ रहा हो, तो भी पूरे लेख को पढ़ने के बाद तो लेखक की राय समझ में आ ही जानी चाहिए। अंतिम पैराग्राफ से ठीक पहले वाले पैराग्राफ में अनवर ने लिखा है, "अगर वाक़ई शो संस्कृति को मार रहा हो, तो फिर संस्कृति ही इसे मार देगी। भारत की संस्कृति कोई जुमा जुमा आठ दिन की संस्कृति तो है नहीं।" इसके बाद भी कुछ लोग पता नहीं क्यों इतने भड़के हुए हैं? कहीं इसके पीछे वजह ये तो नहीं कि लेख 'अनवर जमाल अशरफ' ने लिखा है?
- अनिकेत
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"नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक "अनवर" है"
ये नीतीश की उदारता नहीं चालाकी है
Saturday, August 1, 2009
"ट्रस्ट नहीं बनने दिया, इसलिए निशाने पर हूं"
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेंबर में जो कुछ भी हुआ उस पर वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमार अफसोस जाहिर कर चुके हैं। कन्हैया भेलारी भी उस घटना को शर्मनाक बता रहे हैं। वो मानते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए था जिससे प्रकाश कुमार के सम्मान को ठेस पहुंची। लेकिन उनका ये भी कहना है कि प्रकाश को उनका मजाक पसंद नहीं आया तो वो शब्दों के जरिए विरोध जता सकते थे। जनतंत्र से वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी की बातचीत।
सवाल – मुख्यमंत्री के चेंबर में आखिर झगड़े की नौबत क्यों आई? प्रकाश से आपका झगड़ा किस बात पर हुआ?
कन्हैया भेलारी - मैं जब मुख्यमंत्री के चेंबर में घुसा तब वहां पहले से क्या बातचीत चल रही थी इसका मुझे अंदाजा नहीं था। मैंने जब .... (READ MORE)