राजू रंजन प्रसाद प्रगतिशील विचारों वाले बेहद शालीन और सज्जन शख़्स हैं। इतिहास और समाजशास्त्र में गहरी पैठ है। पटना से उन्होंने पीएचडी की है। कुछ खास मसलों पर समझौता नहीं कर सके, इसलिए किसी कॉलेज में प्रोफेसर नहीं बन पाए। फिलहाल राज्य सरकार के एक स्कूल में नवनियुक्त शिक्षक हैं और पूरी ईमानदारी से बच्चों को पढ़ाते हैं। साहित्य और आलोचना में भी इन्होंने काफी काम किया है। हाल ही में पटना में जब अस्थाई शिक्षकों ने अपनी मांगों के साथ विरोध प्रदर्शन किया तो पुलिस ने शिक्षकों को दौड़ा-दौड़ा पीटा। उसके बाद कुछ पत्रकारों ने शिक्षकों की आलोचना शुरू की। आलोचना की एक मर्यादा होती है। लेकिन कई पत्रकार ये मर्यादा भी लांघ गए। राजू रंजन प्रसाद ऐसे तमाम पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि गिरावट कहां नहीं आई है? क्या पत्रकारिता का स्तर नहीं गिरा है? क्या पत्रकारों की भाषा नहीं बिगड़ी है? आप उनका ये लेख पढ़िये और हो सके तो उनके सवालों का अपने स्तर पर ही सही जवाब दीजिए।
नवनियोजित शिक्षकों के आन्दोलन की खबरें बिहार के अखबारों में ‘प्रभात खबर’ ने सबसे शानदार तरीके से छापीं लेकिन ‘सुशासनी।’ डांट से अब ये ‘उल्टी गंगा बहाने’ लगे हैं। अनुराग कश्यप, दर्शक (लेखक हैं तो बुर्के में क्यों हैं?) और सुरेन्द्र किशोर इन शिक्षकों को अयोग्य साबित करने पर तुले हैं। शायद कोई ‘सरकारी फरमान’ मिला हो या कि ‘राजकीय पत्रकार’ नियुक्त होने के लिए ये लोग भी ‘दक्षता परीक्षा’ से गुजर रहें हैं। अनुराग कश्यप जी शिक्षकों को गुटखा-पान खाने वाला बता कर अयोग्य घोषित करना चाहते हैं। अगर योग्यता-अयोग्यता का यह भी एक पैमाना है तो न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है कि मद्यपान का प्रतिशत पूरी दुनिया में और खासकर बिहार में, किसी भी अन्य पेशे के लोगों से ज्यादा पत्रकारों में है। यहां तो ‘पियक्कड़’ होना एक अच्छा पत्रकार होने की पूर्व शर्त की तरह है। आप पत्रकार हैं तो मालूम ही होगा कि .... READ MORE