अनवर के लेख पर काफी बहस हुई है। लेकिन इस बहस में लेख के मुख्य विषय से ज़्यादा ज़ोर एक खास वाक्य पर है। बहुत से लोगों को एतराज़ है कि अनवर ने "भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति क्यों लिख दिया।" हालांकि अनवर ने ये नहीं लिखा कि भारतीय संस्कृति भाड़ में जाए। इसके ठीक उलट पूरे लेख को पढ़ें, तो उनकी ये राय साफ ज़ाहिर होती है कि भारतीय संस्कृति इतनी मज़बूत है कि एक टीवी शो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसी बात को और भी ज़ोर देकर और चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में कहने के लिए ही उन्होंने लिखा है कि "अगर आधे घंटे का एक टेलीविज़न शो सदियों पुरानी संस्कृति को उखाड़ फेंक रहा हो, तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति।" इस वाक्य का ये अर्थ निकालना कि लेखक भारतीय संस्कृति को भाड़ में झोंकना चाहते हैं, भाषाई अभिव्यक्ति की कच्ची समझ के सिवा कुछ नहीं है। पहला वाक्य अगर ठीक से समझ में न आ रहा हो, तो भी पूरे लेख को पढ़ने के बाद तो लेखक की राय समझ में आ ही जानी चाहिए। अंतिम पैराग्राफ से ठीक पहले वाले पैराग्राफ में अनवर ने लिखा है, "अगर वाक़ई शो संस्कृति को मार रहा हो, तो फिर संस्कृति ही इसे मार देगी। भारत की संस्कृति कोई जुमा जुमा आठ दिन की संस्कृति तो है नहीं।" इसके बाद भी कुछ लोग पता नहीं क्यों इतने भड़के हुए हैं? कहीं इसके पीछे वजह ये तो नहीं कि लेख 'अनवर जमाल अशरफ' ने लिखा है?
- अनिकेत
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Sunday, August 2, 2009
“नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक “अनवर” है”
अनवर जमाल अशरफ़के लेख के बाद "सच का सामना" पर होने वाली बहस ने नया मोड़ ले लिया है। समरेंद्र के दोनों लेख - लूटपाट, क़त्ल और व्यभिचार के लिए एकजुट हों ! और सबसे पहले तो बंद करो “सच का सामना” में संस्कृति की बात कहीं नहीं थी। लेकिन अनवर के लेख के बाद अब सारा ध्यान भारतीय संस्कृति पर केंद्रित हो गया है। हालांकि अनवर ने भाड़ शब्द का इस्तेमाल एक मुहावरे के तौर पर किया है, लेकिन विरोध करने वालों को सबसे ज़्यादा एतराज इसी बात का है कि लेखक ने भारत की महान संस्कृति को भाड़ में क्यों झोंक दिया? इससे लगता है कि क्यों नहीं जनतंत्र पर एक बहस भारतीय संस्कृति पर भी हो जाए। जो भी इस महान संस्कृति पर अपनी बात रखना चाहते हैं वो खुल कर कहें। हम उनकी राय को सम्मान पूर्वक जगह देंगे। इसकी शुरुआत करते हैं अनवर के लेख पर आई कुछ जोरदार टिप्पणियों से। आप इन्हें पढ़ें और सहमति-असहमति दर्ज कराएं।