किसी भी अख़बार को उठाइए और तमाम ख़बरों को पढ़िए। संपादकीय पृष्ठ पर मौजूद लेखों को भी पढ़िए। आप पाएंगे कि अख़बारों में आमतौर पर किसी शख़्स की आलोचना होती और किसी की तारीफ़। वो शख़्स कोई भी हो सकता है। मंत्री, नेता, अधिकारी, अभिनेता या फिर कारोबारी... कोई भी हो सकता है। आलोचना सभी की होती है। सवाल सभी पर खड़े किए जाते हैं। किसी न किसी मुद्दे पर और किसी न किसी वक़्त पर। यहां सवाल उठता है कि आखिर दूसरों की आलोचना करने वाले पत्रकारों का खुद की आलोचना को लेकर क्या रवैया रहता है?
ये एक सोचने लायक विषय है। स्वस्थ आलोचना और स्वस्थ बहस किसी भी लोकतंत्र के बुनियादी तत्व हैं। सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं होगी तो नीतियों में सुधार नहीं होगा। ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों और नेताओं के ग़लत कामों की समीक्षा नहीं होगी तो वो निरंकुश हो जाएंगे। इसलिए आलोचना बहुत ज़रूरी है और आलोचना के दौरान उठे मुद्दों पर व्यापक बहस भी उतनी ही ज़रूरी है। लेकिन क्या हम पत्रकार मीडिया से जुड़े मुद्दों पर और व्यक्तियों पर बहस के लिए तैयार हैं?
इस सवाल पर आप जितनी बार गौर कीजिएगा, आपको एक ही जवाब मिलेगा - नहीं। हम आलोचना के लिए ज़रा भी तैयार नहीं। कोई हमारी हल्की सी निंदा कर दे तो हम आसमान सिर पर उठा लेते हैं। बिफर पड़ते हैं। हम हमले करने का हौसला तो रखते हैं लेकिन हम पर कोई अंगुली उठा दे ..... READ MORE