पत्रकारिता में आने से पहले से प्रभाष जोशी को पढ़ रहा हूं। उनके लिखे ने उनका सम्मान इतना बढ़ाया है कि कई बार दूसरों से बहस में झगड़े की नौबत आ गई। प्रभाष जोशी के विरोधी उन पर दो ही आरोप लगाते रहे हैं एक कि भीतर से वो घोर संघी हैं और दूसरी घोर ब्राह्मणवादी। लेकिन जो भी मुझसे ये कहता था मैं उसे "हिंदू होने का धर्म" पढ़ने की सलाह दे देता। बीते 17 साल के लेखन में प्रभाष जी ने बीजेपी की जो खाट खड़ी की है उससे एक धारणा तो ऐसी बनती ही है कि वो संघ के मुरीद होंगे तो होंगे लेकिन उनकी कलम संघ के बंधन में नहीं है। केंद्र में जब एनडीए की सरकार थी तब मैंने कई बार जनसत्ता में प्रभाष जी के तीखे लेख पढ़े हैं। उन्होंने स्वयंसेवक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कई मुद्दों पर कड़ी आलोचना की है। वैसी आलोचना कोई खांटी पत्रकार ही कर सकता है।
ये सम्मान हाल-फिलहाल और बढ़ गया, जब प्रभाष जी ने समाचार पत्रों की दलाली के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला। वैसे इस मसले को उठाने का श्रेय वॉल स्ट्रीट जरनल के पॉल बेकेट को दिया जाना चाहिए। उन्होंने ही मई की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया था कि ख़बरों के पैकेज का कैसा गंदा खेल चल रहा है? लेकिन यह भी एक सत्य है कि प्रभाष जी के लेख के बाद इस मुद्दे पर जो बहस हुई है उससे थोड़ी हलचल जरूर हुई। प्रभाष जी ने दस मई को अपना पहला लेख लिखा "ख़बरों के पैकेज का काला धंधा।" अगले हफ़्ते 17 मई को दूसरा लेख लिखा "चौकीदार का चोर होना।" घूम घूम कर इस मुद्दे पर हवा बनाने लगे। लगा कि प्रभाष जी की अगुवाई में दलाली करने वालों को सज़ा भले ही नहीं मिले लेकिन दलालों की असलियत सामने ज़रूर आएगी। उस बहस से लोगों के दिलो दिमाग पर पड़ी धूल झड़ जाएगी। ठंडे पड़े लहू में हल्का ही सही उबाल आएगा। भविष्य में सकारात्मक बदलावों की नींव तैयार होगी। लेकिन ऐसा होता उससे पहले ही प्रभाष जी ने अपने विरोधियों को अपने ऊपर हमले का एक औजार थमा दिया है। सिर्फ़ विरोधियों को ही क्यों मुझ जैसे कई प्रशंसकों का मोह भी भंग .... (READ MORE)