नीतीश सरकार ने वहां के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नस दबा रखी है। इसके लिए सरकारी विज्ञापनों को जरिया बनाया गया है। महंगाई के दौर में आज एक अख़बार को छापने की कीमत कम से कम 12 रुपये आती है। मगर वो बिकता है ढाई या फिर तीन रुपये में। लागत और बिक्री के बीच के इस अंतर को विज्ञापनों की मदद से पाटा जाता है। इसमें सरकारी विज्ञापनों की भूमिका बड़ी होती है। बस अख़बारों की ये कमजोरी, निरंकुश नेताओं को मनमानी करने की छूट दे देती है।
इसे विस्तार से समझने के लिए आप कभी बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग की वेबसाइट पर जाएं। वहां आपको राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 मिलेगी। इस नीति के तीसरे पेज पर चौथे कॉलम में साफ शब्दों में लिखा है कि “कोई भी समाचार पत्र-पत्रिका, जो कि स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हैं, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा”।...... ((READ MORE))......