Tuesday, June 2, 2009

बिहार की गुलाम पत्रकारिता ((पार्ट – 1))

बिहार की राजधानी पटना में विकास के नाम पर एक केऑस (अफरा-तफरी) नज़र आता है। जगह जगह गड्ढे खुले पड़े हैं। जो परियोजाएं एक दो साल में पूरी हो जानी चाहिये थीं, वो लंबी और लंबी खिंचती जा रही हैं। ट्रैफिक की समस्या लगातार बनी हुई है। मुजफ्फरपुर का भी वही हाल है। बीच बाज़ार में आधा बना पुल विकास परियोजनाओं की खामियों की ओर इशारा करता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि नीतीश के राज में कई ऐसी संस्थाओं और कंपनियों को भी परियोजनाएं बांटी गईं जिनके पास उनकी दक्षता नहीं थी। आखिर क्यों? कहीं उन लोगों का सरकार से कोई रिश्ता तो नहीं? रिश्ते सिर्फ़ ख़ून के ही तो नहीं होते। दिल, मतलब, सियासत और मजबूरी के रिश्ते भी तो हो सकते हैं। अगर रिश्ते हैं तो फिर मीडिया ने उनका खुलासा क्यों नहीं किया है? नीतीश की अंधभक्ति में जुटा मीडिया ख़राब पहलुओं पर सवाल खड़े क्यों नहीं कर रहा है? क्या अचानक बिहार के सभी भ्रष्ट अफ़सर ईमानदार हो गए हैं? क्या एक झटके में वहां की सारी बुराइयां ख़त्म हो गई हैं? इन सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं है। इसे समझने के लिए लालू यादव और नीतीश कुमार के अंतर को .............. ((READ MORE))