Sunday, June 21, 2009

क्या कंधों पर कुछ बोझ महसूस हो रहा है?

शैलेंद्र सिंह की असमय मौत से उठे सवाल ने हर किसी को बेचैन कर दिया है। यही वजह है कि जनतंत्र की अपील के बाद कई लोग अपने दिल की बात लिख रहे हैं। बस उन सबकी गुजारिश यही है कि उनका नाम जाहिर न हो। हमें भी मुद्दे से मतलब है, किसी के नाम से नहीं। ऐसा ही एक ख़त हम आपसे साझा कर रहे हैं। लिखने वाले ने बड़ी संजीदगी से अपनी बात रखी है। आप भी उसी संजीदगी से पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये।

शैलेंद्र सिंह के साथ इतना काम किया वो बीच रास्ते ही चला भी गया. लेकिन अपने पीछे एक बहस छोड़ कर. वो बहस जिसे अब आगे बढ़ाया जाना चाहिए. वो मुद्दा जिस पर गंभीरता से विचार किया जाए तो आगे कई और शैलेंद्र की तरह सब कुछ अधूरा छोड़ चले जाने से बच जाएं, शायद. सीधे मुद्दे की बात करें. टीवी में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा. इसका ग्लैमर इसकी कई खामियों को लगातार ढकने में कामयाब रहा है. यहां लोग एक दूसरे की नौकरी के प्यासे हो चले हैं. (नौकरी ही आजकल सुख चैन का स्तर तय करने लगी है जो दरअसल होना नहीं चाहिए. लेकिन ये सच है, क्या करें). इसके पीछे कोई ठोस वजह हो ये ज़रूरी नहीं है. किसी को किसी की शक्ल पसंद नहीं आती. किसी को किसी का ऊंचा बोल देना अपनी शान में गुस्ताख़ी लग जाता है. तो कई ऐसे होते हैं जो अपने से ज़्यादा काबिल आदमी के रास्ते में हर तरह का जाल बुनने, हर तरह का छल प्रपंच करने में जुटे रहते हैं. ये आज शुरू नहीं हुआ. सालों से हो रहा है. लेकिन अब इस पर बहस होनी चाहिए. हर क्षेत्र की तरह टीवी में भी अच्छे, बुरे हर तरह के लोग हैं. हर क्षेत्र की तरह यहां भी समीक्षा होनी ही चाहिए. टीवी में बढ़ते तनाव की कुछ वजहें तो आसानी से गिनाई जा सकती हैं.
1. टीवी का तनाव दरअसल जबरन ओढ़ाया गया तनाव है. ये तनाव तब ज़्यादा बढ़ता है जब कई चुपचाप अपने काम में लगे लोगों को उन कई लोगों का भी काम करना पड़ता है जो अपनी नौकरी को छोड़ नौकरी के वक्त में बाकी सब कुछ कर रहे होते हैं. फोन पर चिपके जाने कहां देर तक गपिया रहे होते हैं. कुछ-कुछ देर बाद निकल कर चाय, पानी, सिगरेट के अड्डे पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे होते हैं. उन्हें पता होता है कि काम तो पीछे चल ही जाएगा. कुछ गधे हैं ना बैठे हुए काम निपटा देने के लिए और बाकी तनाव अपने साथ .... ((READ MORE))