Saturday, June 20, 2009

“शैलेंद्र जाते-जाते हमें सोचने को मजबूर कर गए हैं”

(पत्रकार शैलेंद्र के निधन से आहत एक शख़्स ने शुक्रवार शाम जनतंत्र के ई-मेल पर एक ख़त भेजा। ख़त भेजने वाले को मैं व्यक्तिगत तौर पर जनता हूं। मैंने फोन करके पूछा कि क्या ये ख़त जनतंत्र पर छाप दूं। उन्होंने मना कर दिया। कहा कि “ऐसा करके आप मेरा तनाव बढ़ा देंगे।” फिर मैंने उनसे पूछा कि क्या नाम जाहिर नहीं करे तो आप इसे छापने देंगे… “उन्होंने कहा कि सोचने का वक़्त दीजिये।” आज शाम मैंने उन्हें दोबारा फोन किया तो उन्होंने कहा कि “अगर किसी भी सूरत में मेरा नाम जाहिर नहीं होगा तो आप इसे छाप सकते हैं।” मैंने उनसे वादा किया और उनकी पहचान छिपाने के लिए ख़त को थोड़ा संपादित किया। अब मैं ये ख़त आपके सामने रख रहा हूं। आप सोचिये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये। अपने-अपने दिल पर हाथ रख कर कहिये कि ये ग़लत है।)

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शुक्रवार, 19 जून 2009, सुबह 10 बज कर 30 मिनट …. दिल्ली का निगम बोध घाट... बड़ी संख्या में पत्रकार आईबीएन 7 के सीनियर एडिटर शैलेंद्र सिंह को अंतिम विदाई देने के लिए पहुंचे थे... वहां मौजूद सभी के चेहरों पर मातम की लकीरें पढ़ी जा सकती थीं... खुद को सांत्वना देने के लिए वहां मौजूद हर शख़्स यही कह रहा था कि शैलेंद्र को मौत खींच कर ले गई। वरना कोई दूसरी वजह नहीं थी कि वो रात डेढ़ बजे घर से दूर नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे पर लॉन्ग ड्राइव के लिए जाते।.... ((READ MORE))