Thursday, July 23, 2009

साहित्य की दुनिया इतनी ही गंदी है दोस्तों

मैंने ज़िंदगी में डायरी छोड़ कर कुछ नहीं लिखा (सिवाए जनतंत्र पर एक लेख के)। कभी कभार दोस्तों को ई-मेल भेज देता हूं। लेकिन मैं एक अच्छा पाठक जरूर हूं। इसलिए साहित्य की ज़्यादातर बहसों से वाकिफ़ हूं। चाहे वो प्रेमचंद को जातिवादी ठहराने की कोशिश हो या फिर उदय प्रकाश को लेकर चल रहा ताज़ा विवाद। मैं इस विवाद में नहीं कूदना चाह रहा था। लेकिन पाठक को भी अपनी बात कहने का हक़ है। इसी हक़ का इस्तेमाल करते हुए मैं भी अपनी बात कहूंगा। खुल कर कहूंगा।

सबसे पहले तो यह कि उदय प्रकाश ने जो गुनाह किया है उसके लिए उनका बचाव नहीं किया जा सकता। भविष्य में जब भी उदय प्रकाश के इस गुनाह का मूल्यांकन किया जाएगा तो आज जो भी उनके बचाव में खड़े हैं, वो सभी उनके इस गुनाह में बराबर के भागीदार माने जाएंगे। वो जाने-अनजाने में एक ऐसी प्रवृति को जन्म दे रहे हैं जिसमें कोई भी साहित्यकार किसी फासीवादी ... किसी भी दंगाई के गले में बांह डाले घूमेगा और आलोचना करने वालों से कहेगा कि “तुम मेरे कर्म को मत देखो मेरा साहित्य पढ़ो। मैं निजी ज़िंदगी में कुछ भी होऊं तो क्या लेकिन साहित्य में तो साम्यवादी हूं। गरीबों की बात करता हूं... पिछड़ों, दलितों के साथ हूं। तुम मेरे साहित्य की वजह से मुझे चाहते हो... इसलिए मेरे उसी रूप की पूजा करो”। .... READ MORE