अविनाश ने जो बातें कही हैं, उनमें बहुत दम है। और इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि “अश्लीलता कोई राजनीतिक या सामाजिक (या यहां तक कि निजी) विचारधारा नहीं है। यह हमारी सभ्यता की वो सरहद है, जहां कब दीवार खड़ी कर दी गयी, हमें पता ही नहीं चला”। लेकिन अश्लीलता परिभाषित नहीं की जा सके – ऐसा भी नहीं है। इसकी परिभाषा है। ये परिभाषा बहुत हद तक सब्जेक्टिव है। मतलब हमारे समाज में जो अश्लील है, यूरोप के लिए वो श्लील हो सकती है। यूरोप के अलग-अलग देशों में भी ये परिभाषा बदल सकती है। ये भी मुमकिन है कि यूरोप में जो अश्लील मानी जाए जापान में उसे लोग यूं ही नज़रअंदाज कर दें। हर देश के कानून में वहां के सामाजिक परिदृष्य को रख कर अश्लीलता की परिभाषा गढ़ी गई है।
लेकिन सभी जगह अश्लीलता की परिभाषा में कुछ केंद्रीय तत्व हैं। जिनमें सबसे अहम है कि कोई भी रचना साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मानदंडों पर कहां तक खरी उतरती है। उस रचना की मंशा क्या है और उसके पीछे तर्क क्या है? अगर किसी भी कृति में इनमें से कोई भी तत्व ठोस स्तर पर मौजूद है तो आप उसे सीधे तौर पर अश्लील करार नहीं दे सकते हैं।.... READ MORE