Saturday, July 18, 2009

जब नंगी तस्वीरों से काम चले तो ख़बर कौन पूछे?


हिंदी मीडिया की मौजूदा हालत के लिए आखिर कौन-कौन जिम्मेदार हैं? जनतंत्र पर इस सवाल से जुड़ी एक बहस चल रही है। हमने उदयन शर्मा की याद में हुए संवाद के बहाने इस मुद्दे पर कुछ सवाल उठाए थे। फिर प्रोफेसर आनंद कुमार का वो लेख छापा जिनमें कई सवालों के जवाब थे। अब उसी बहस को आगे बढ़ा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह। जनसत्ता से संजय कुमार सिंह का गहरा नाता रहा है। उन्होंने इस अख़बार को 1987-2002 तक पंद्रह साल दिये हैं। अब वो अनुवाद के जरिए अपनी जीविका चला रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में आर वेंकटरमन की पुस्तक "माइ प्रेसिडेंशियल इयर", एन के सिंह की "द प्लेन ट्रूथ", जे एन दीक्षित की "इंडो पाक रिलेशन" और लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा की "वीर कुंवर सिंह" समेत बीस से ज़्यादा चर्चित पुस्तकों का वो अनुवाद कर चुके हैं। आप जनतंत्र पर उनका ये लेख पढ़िए और हिंदी पत्रकारिता की दशा-दिशा पर चल रही बहस को आगे बढ़ाइए।

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हिन्दी पत्रकारिता की दशा दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। एक समय हिन्दी के मानक कहे गए अखबार जनसत्ता का हवाला देकर बातें तो की जा सकती हैं पर उसका कोई मतलब नहीं है। अगर यह तथ्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी अखबारों के मुकाबले अंग्रेजी वालों को ज्यादा महत्त्व देते रहे तो इसका मतलब है और ऐसा क्यों है यह समझना कोई मुश्किल नहीं है और इसके लिए अगर कोई दोषी है तो वो हम ही हैं। इनमें पत्रकार, संपादक, मालिक सलाहकार सब की भागीदारी है। हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों, पाठकों, पत्रकारों, मालिकानों ..... READ MORE