हमारे अख़बार और संपादक देश का नाम कितना रोशन कर रहे हैं वो वॉल स्ट्रीट जरनल में छपी एक रिपोर्ट से जाहिर होता है। इस रिपोर्ट की हेडिंग है “वांट प्रेस कवरेज, गिव मी सम मनी” यानी “प्रेस कवरेज चाहते हो तो मुझे कुछ पैसे दो”. इसे लिखा है दिल्ली में मौजूद उसके चीफ ऑफ ब्यूरो पॉल बैकेट ने। रिपोर्ट की हेडिंग से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इसमें भारतीय मीडिया के किस चेहरे का ब्योरा होगा?
रिपोर्ट में चंडीगढ़ से किस्मत आजमा रहे निर्दलीय उम्मीदवार अजय गोयल का जिक्र है। अजय गोयल का कहना है कि कम से कम दस अख़बारों के दलालों ने उनसे कवरेज के लिए पैसे मांगे हैं। पैसे नहीं देने पर उनके बारे में एक भी ख़बर अख़बारों ने नहीं छापी है। अजय गोयल पूछ रहे हैं कि जहां मीडिया में दलाली इस कदर हावी है तो फिर जनता के पढ़े लिखे होने का क्या फायदा? जब लोगों को सही और सच्ची जानकारी नहीं मिलेगी तो फिर वो सही फैसला कैसे करेंगे? सवाल जायज हैं और आरोप भी सही। अजय गोयल पहले और आखिरी शख़्स नहीं हैं जिसने मीडिया पर दलाली का आरोप लगाया है। उनसे पहले कई और नेता ये आरोप लगा चुके हैं। रही सही कसर इस रिपोर्ट ने पूरी कर दी है। भारतीय मीडिया का ये घिनौना चेहरा अब पूरी दुनिया के सामने है।
भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। उसे ये स्थान संविधान ने नहीं दिया है। संविधान के मुताबिक तो लोकतंत्र के सिर्फ तीन ही स्तंभ हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। अगर प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने का गौरव मिला तो ये गौरव उसने काम से हासिल किया था। उसका कर्म और धर्म तो तीनों स्तंभों के चाल-चलन और चरित्र पर नज़र रखना है। ताकि जनता को वक़्त रहते आगाह किया जा सके कि उसके साथ कहां और कौन विश्वासघात कर रहा है। लेकिन अब लगता है कि मीडिया का कर्म और धर्म दलाली के सिवाय कुछ नहीं। आज उसमें बाकी तीनों स्तंभों से कहीं ज्यादा गंदगी है। और ये गंदगी सिर्फ अख़बारों में नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर के न्यूज चैनलों में भी है।.....
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