Thursday, December 31, 2009
क्या मीडिया का एक धड़ा एन डी तिवारी का चेला है?
Friday, December 25, 2009
वॉयस ऑफ इंडिया में अशोक उपाध्याय का निधन
Thursday, December 24, 2009
इस 'सिस्टम' में बार बार मरेगी रुचिका
♦ प्रभात शुंगलू
टीवी चैनलों पर चंडीगढ़ की विशेष अदालत के बाहर एसपीएस राठौर को हंसते, खिलखिलाते देखा तो लगा सरकार ने हरियाणा के पूर्व डीजीपी को किसी बड़े सम्मान से नवाज़ा हो। ये चेहरा उस शख़्स का चेहरा नहीं था जिसको अदालत ने 14 साल की लड़की रुचिका गिरहोत्रा के साथ छेड़खानी करने के आरोप में दोषी पाया हो। अदालत के फैसले में राठौर को अपनी जीत नज़र आई। जिस अदालत ने दोषी पाते हुए 6 महीने की क़ैद की सज़ा सुनायी उसी अदालत से तुरत फुरत ज़मानत भी मिल गयी। पूर्व डीजीपी सीना फूला कर अपने घर के लिए निकला। मानो वो मीडिया और देश को चिढ़ा रहा हो कि देखो कानून मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। .... ((Read More))
पी साईनाथ के जरिए महाराष्ट्र का सच जान कर प्रभाष जोशी को याद करें
Wednesday, December 23, 2009
राठौर आदरणीय क्यों? मीडिया के भाषाई संस्कार पर सवाल
- दिलीप मंडल
रुचिका के साथ छेड़खानी और उसकी आत्महत्या के मामले में भारतीय न्यायव्यवस्था ने कुछ नया या अजूबा नहीं किया है। न्यायप्रक्रिया में धन और रुतबे के महत्व के बारे में ये केस कोई नई बात नहीं कहता। देश के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन ने जब ये कहा था कि आजादी के बाद जिन लोगों को फांसी की सजा हुई है उनमें से कोई भी अमीर नहीं था, तो वो इसी सच को उद्धाटित कर रहे थे। हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस.पी.एस. राठौर के साथ जो होने वाला है उसका अंदाजा हम इस मुकदमे की सुस्त रफ्तार से लगा सकते हैं। 19 साल में ये केस स्थानीय न्यायालय की सीमा को ही पार कर पाया है। इस रफ्तार से केस चला तो राठौर को जीवन का एक भी दिन शायद ही जेल में काटना होगा। ... Read More
मीडिया की मुहिम के बाद अब राठौर की खाल नहीं बचेगी
- अजीत अंजुम
इस मामले (रुचिका के साथ हुई छेड़खानी और उसके बात पुलिसिया जुल्मों के जरिए उसे आत्महत्या के मुंह में ढकेलने और इस संगीन मामले में अदालत के बेतुके फैसले) को मीडिया ने पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता के साथ उठाया है। आज तीसरे दिन भी अखबारों और न्यूज चैनलों पर रूचिका से साथ हुई नाइंसाफी का मामला छाया है। कोर्ट के फैसले के बाद हंसते हुए पूर्व डीजीपी राठौर की बेशर्मी और कानून को अपने ठेंगे पर रखने की उनकी हिमाकत को मीडिया ने खूब उछाला है। कई न्यूज चैनलों ने राठौर को मिली मामूली सज़ा के ख़िलाफ़ लगातार मुहिम चला रखी है। अब क्या चाहते हैं ? मीडिया इससे ज़्यादा क्या कर सकता है ? सच तो ये है कि आज से करीब 19 साल पहले जब ये मामला हुआ था, तब टीवी तो था नहीं, अखबार भी इतने नहीं ... Read More
कुंबले-धोनी मॉडल से सबक लें बीजेपी और कांग्रेस
भारत जब टेस्ट क्रिकेट में दुनिया की नम्बर वन टीम बना, तो पूर्व कप्तान कुंबले ने अपने कॉलम एक अहम बात कही..."20 महीने पहले गैरी कर्स्टन के कोच बनने के बाद पूरी टीम ने नम्बर वन बनने का सपना देखा था। मैं कप्तान के तौर पर इस हसरत का हिस्सा रहा। लेकिन नंबर वन बनने में हर किसी का योगदान रहा। इसकी एक बड़ी वजह रही कि हर किसी के मन में ये साफ था कि हमें पहुंचना कहां है। ये पहले से ही तय था कि मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा जिससे कि ये मिशन इसी मजबूती के साथ आगे बढ़ सके” अनिल कुंबले टेस्ट कप्तानी में अपने उत्तराधिकारी महेंद्र सिंह धोनी की ओर इशारा कर रहे थे...अगर कुंबले-धोनी दौर इस बात की मिसाल है कि कैसे अगली पीढ़ी को बेटन थमाया जाना चाहिए तो अटल-आडवाणी दौर इस बात की गवाह रही कि उत्तराधिकार तय करने में लापरवाही और दिशाहीनता कैसे एक पार्टी, एक विचारधारा और एक सोच को हाशिए पर ले जाती है।... ((Read More))
डरे हुए मोदी जनता की हर सांस पर पहरा बिठाना चाहते हैं
ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और स्विट्जरलैंट जैसे देशों में अनिवार्य वोटिंग का कानून है। ऑस्ट्रेलिया में ये लगभग सौ साल पुराना कानून है जिसकी कहानी भी दिलचस्प है। पहली बार ऑस्ट्रेलिया में ये कानून 1914 में बना जब लिबरल पार्टी की सरकार थी। और ये कानून इसलिए बना क्योंकि उस साल क्वीन्सलैंड राज्य में चुनाव का वोट प्रतिशत 75 फीसदी था। और अगले साल यानि 1915 में देश में चुनाव होने वाले थे। लिबरल पार्टी को ये डर था कहीं लेबर पार्टी बाजी न मार ले जाए क्योंकि लेबर पार्टी के वोटर ज्यादा संगठित थे। इस कारण लिबरल पार्टी ने ये कानून बनाया मगर अगले साल के चुनाव में वो लेबर पार्टी से हार ही गयी। कहीं ऐसा तो नहीं कि लोक सभा में हार झेलने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अब बीजेपी के शहरी वोटर के दरकने का ख़तरा नज़र आ.... ((Read More))
Tuesday, December 22, 2009
अपराधी ताक़तवर हो तो मीडिया करता है सलाम
ताज़ा मामला हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर से जुड़ा है। राठौर ने 19 साल पहले एक 14 साल की नाबालिग लड़की रुचिका गेहरोत्रा से छेड़खानी की थी। और मामला दर्ज होने के बाद इस वहशी दरिंदे ने रुचिका और उसके घरवालों को मानसिक यंत्रणा दी। अपने पुलिसिया ताक़त के जोर पर उनकी ज़िंदगी नर्क बना दी। आखिर में रुचिका ने 17 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली और 2002 में उसके भाई ने भी आत्महत्या कर ली। राठौर के कुकर्मों की वजह से एक परिवार बर्बाद हो गया जबकि राठौर की तरक्की होती चली गई। सत्ता और नेताओं से गठजोड़ का फायदा उठा कर वह हरियाणा का डीजीपी बना और 2002 में .... read more
हिंदुस्तान टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट के बीच करार
Monday, December 21, 2009
26/11 पर राम प्रधान कमेटी की रिपोर्ट पेश, कठघरे में गफूर
इलाहाबाद में मुन्नी मोबाइल का लोकार्पण
Sunday, December 20, 2009
हिंदुस्तान-अमर उजाला में समझौता नहीं, एफ़आईआर दर्ज
Saturday, December 19, 2009
हिंदुस्तान और अमर उजाला की सर्कुलेशन टीमों में हिंसक झड़प
Thursday, December 10, 2009
अंबानी बंधुओं की लड़ाई में नई दुनिया के हिस्से मलाई!
Tuesday, December 8, 2009
एनडीटीवी ने बेच दिया इमैजिन
Monday, December 7, 2009
45 देश 56 अख़बार और एक संपादकीय
Wednesday, December 2, 2009
शेयर बाज़ार में दैनिक भास्कर की छलांग
अमर उजाला में कई नई नियुक्तियां
Wednesday, November 25, 2009
अजमल कसाब के नाम एक हिंदुस्तानी का ख़त
आमिर अजमल कसाब,
तुम 26 नवंबर 2008 को फक्र से याद करोगे। हमारे दिलो-दिमाग में भी वो दिन हमेशा हमेशा के लिये चस्पा हो चुका है। वो वहशी तीन दिन जब तुमने और तुम्हारे नौ साथियों ने मिलकर मुंबई में खूनी खेल खेला था। लेकिन एक और दिन मेरे जहन की गहराइयों में उतर चुका है - 23 फरवरी 2009। उस दिन सारा हिंदुस्तान टकटकी लगाये अपने अपने घरों में टीवी देख रहा था। अमरीका के सबसे रंगीन शहर लॉस एंजीलीस में ऑस्कर अवार्ड दिये जा रहे थे। दुनिया भर में संगीत से जुड़े कलाकारों को उनके उम्दा काम के लिये नवाजा जा रहा था। उम्मीद से लब्रेज़ दो हिन्दुस्तानी कलाकार भी उस जलसे में शामिल थे। मैं तुम्हें उनसे मिलवाता हूं। तुम्हारी ही तरह दोनों इस्लाम धर्म को मानने वाले। एक का नाम है - अल्लाह रख्खा रहमान। और दूसरे का रेसूल पुकुट्टी।
रहमान और रेसूल को उस दिन ऑस्कर मिला। क्या हिंदू, क्या मुसलमान, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध - फक्र से 120 करोड़ हिंदुस्तानियों का सीना चौड़ा हो गया। हिन्दुस्तान में टूरिस्ट की तरह आते तो देखते इन सभी धर्मों को मानने वालों का जलवा लेकिन तुम तो मियां शैतानी दिमाग के आदमी निकले...तुम तो एके 56 ..... (read more)
Wednesday, October 7, 2009
एस्सार ग्रुप को ग्लोबल ब्रांड बनाएंगे शिवनाथ ठुकराल
Tuesday, October 6, 2009
"दैनिक भास्कर पर दया कीजिए"
Monday, October 5, 2009
दैनिक भास्कर ने महिलाओं को दी गाली
मिनीस्कर्ट में चीन के “नए हथियार” वेंकटेशन वेंबू, हांगकांग
एक अक्टूबर को अपने राष्ट्रीय दिवस परेड में चीन ने अपनी मारक क्षमता और युद्धक हथियारों का जमकर प्रदर्शन किया था। इसमें परमाणु क्षमता से लैस अंतरमहाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइलें भी शामिल थीं। ये मिसाइलें यूरोप और अमेरिका तक मार कर सकती हैं। हालांकि इस पर अधिक चर्चा नहीं हो रही है। वहां चर्चा “व्यापक नरसंहार वाले” दूसरे हथियारों की अधिक है, जो परेड में दिखे .... ((read more))
Thursday, October 1, 2009
गूगल के "G" बन गए गांधी
Sunday, September 6, 2009
इंडिया टीवी की करतूत से भड़की सरकार
Thursday, September 3, 2009
छंटनी पसंद नहीं, कोशिश होगी सब साथ चलें- शशि शेखर
Sunday, August 23, 2009
वॉयस ऑफ इंडिया का प्रसारण फिर शुरू
Friday, August 21, 2009
“वॉयस ऑफ इंडिया” ख़ामोश
प्रभाष जी की पंडिताई में तथ्यों की ऐसी-तैसी
हर चीज को जाति के चश्मे से मत देखिए प्रभाष जी
क्या यही आपकी परंपरा है प्रभाष जी?
Wednesday, August 19, 2009
ब्रह्म से संवाद करते ब्राह्मण यानी प्रभाष जोशी का विराट रूप देखिए
सहारा के कर्मचारी नहीं करेंगे सरेंडर
Tuesday, August 18, 2009
सहारा में सुनामी, 48 कर्मचारियों से मांगा इस्तीफ़ा
Sunday, August 16, 2009
यहां "शहाबुद्दीन”, “बजाज” और “ये पत्रकार” एक जैसे हैं!
राज्य (राज) सभा में जाने लायक जितने भी नाम आपने गिनाए हैं, वे सभी शायद एक “मनोनीत” पद के लिए हैं। विडंबना यह है कि इन सबके अलावा भी जो संभावित नाम हो सकते हैं, उनमें से कोई ऐसा नहीं, जो बिना सर्वश्रेष्ठ “भक्ति” साबित किए “राष्ट्रपति” की कृपा पा सकने में सक्षम हों। अपनी क्षमता भर सबने ऐसा किया ही है, या कर रहे हैं। हां, रूप-स्वरूप अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन “यह किए जाने” को हम इस तर्क से जस्टीफाई कर सकते हैं कि अगर हमारे “लोकतंत्र” के साठ से ज्यादा सालों का हासिल यही है कि देश के सबसे “पाक-साफ मंदिर” में जगह पाना है तो तमाम धतकर्मों में अपनी कुशलता दर्शानी होगी, तो वहां जाने की इच्छा रखने वालों का क्या गुनाह...!
रुकिए नहीं। लेकिन रुक कर थोड़ा देखना होगा। क्या आप शहाबुद्दीन, सूरजभान, राजा भैया, पप्पू यादव जैसे तमाम नामों के संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से परेशान होते हैं? बंदूक की बदौलत अपनी सियासी हैसियत कायम करने वालों से निश्चित तौर पर हमारी पवित्र प्रतिनिधि संस्थाओं की पवित्रता भंग होती है। बंदूक की बुनियाद पर पले-बढ़े लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल करके संसद या विधानसभाओं में पहुंचने पर हमें बहुत दुख होता है, लेकिन आश्चर्य... ((READ MORE))
Saturday, August 15, 2009
चंदन मित्रा के नाम एक खुला पत्र
परम आदरणीय चंदन मित्रा जी,
आपके दुख ने मुझे विचलित कर दिया है... आपके भावुकताभरे उदगार पढ़कर मेरी आंखें भर आयी हैं। आखिर आपके साथ ऐसा क्यों हुआ? जब आप छह साल में बड़ी मेहनत से संसद का कामकाज सीखकर पक्के हो गए थे, तो आपको निकाल दिया गया। भला ये भी कोई इंसाफ है? कुछ साल और नहीं रख सकते थे? माना कि आप बीजेपी खेमे के पत्रकार हैं, लेकिन अब आप कह तो रहे हैं कि संसद के भीतर निष्पक्षता से काम किया है। ये भी बता दिया है कि आपने कैसे अपने बाल-सखा अरुण जेटली के साथ मिलकर संसद में सरकार के साथ सहयोग किया। पिछले सत्र में हुए कामकाज की तारीफें भी कर रहे हैं। इतना कहने पर भी निष्ठुर सरकार मान नहीं रही।
अपनी निष्पक्षता और 'लचीलेपन' का सबूत तो आपने मतगणना के दौरान एक न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में बैठे-बैठे ही दे दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि आप कैसे बढ़चढ़ कर बीजेपी की ... (READ MORE)
Friday, August 14, 2009
चंदन मित्रा की सबसे बड़ी कामयाबी और सबसे बड़ा दुख
क्या किसी पत्रकार के लिए राज्यसभा में मनोनीत होना इतनी बड़ी कामयाबी हो सकती है कि उसके आगे ज़िंदगी के सभी काम बौने नज़र आने लगें? अगर ऐसा है तब तो सभी पत्रकारों का सिर्फ़ एक ही ध्येय होना चाहिए कि वो जनहित में नहीं बल्कि राज्यसभा में चुने जाने की शर्तों के आधार पर पत्रकारिता करें। लेकिन हमने और आपने ऐसे कई पत्रकारों को देखा है जिन्होंने पूरी ज़िंदगी कलम का मान रखा। सत्ता के सामने समर्पण की जगह सत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। जनहित की पत्रकारिता के लिए बहुत कुछ भोगा और सहा। लेकिन चंदन मित्रा जैसे कुछ पत्रकार हैं जिनके लिए राज्यसभा में मनोनीत होना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। चंदन मित्रा ने राज्यसभा से रिटायर होने के बाद द पायनियर में अपनी बात रखी है। वो राज्यसभा से रिटायर होने पर बहुत दुखी हैं। चंदन मित्रा कहते हैं कि अब उनके पास छह साल का अनुभव है और वो बेहतर तरीके से संसदीय व्यवस्था में योगदान कर सकते हैं। लेकिन अब वो राज्यसभा में नहीं हैं।
यही नहीं चंदन मित्रा संसदीय कामकाज की एक झलक भी पेश करते हैं। चंदन कहते हैं कि वो अपनी ज़िंदगी में एक रात भी किसी गांव में नहीं ठहरे हैं। लेकिन वो एक ऐसी स्थाई समिति का हिस्सा रहे जिसने नरेगा की समीक्षा की। आगे बढ़ने से पहले चंदन मित्रा के उस संस्मरण के कुछ हिस्से आप भी पढ़िए। ... READ MORE
Wednesday, August 12, 2009
राज्यसभा की रेस में हैं कई दिग्गज पत्रकार!
Tuesday, August 11, 2009
ख़बर बनाने के लिए टीवी एंकर ने कराए पांच क़त्ल!
गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की लड़ाई में फेसबुक भी कूदा
गूगल ने एक बड़े राज़ से पर्दा उठा दिया है। गूगल की टीम पिछले कई महीने से एक नए सर्च इंजन पर काम कर रही है। एक ऐसा सर्च इंजन जो नई पीढ़ी की जरूरत के हिसाब से हो। इसके लिए गूगल ने चुपके से फीडबैक मंगाने शुरू कर दिया है। वेबसर्च के इस नए सिस्टम का नाम कैफीन रखा गया
आमतौर पर गूगल अपने सर्च इंजन में कुछ न कुछ बदवाल करता आया है। लेकिन 2006 के बाद बड़े स्तर पर कोई बदला नहीं हुआ है। गूगल के इंजीनियरों के मुताबिक किसी भी सर्च इंजन को तैयार करने में तीन मुख्य बातों का ध्यान रखना होता है। एक जितनी भी कमांड के तुरंत बाद वेब पर मौजूद अरबों पन्नों में से जरूरत के पन्नों को छांटना। फिर तेजी से उन्हें एक क्रम में लगाना और उसके बाद रैंक और रेटिंग के हिसाब से उन्हें सर्च इंजन पर पेश करना। इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर पहले से कहीं अधिक बेहतर .... (READ MORE)
मीडिया को हॉलीवुड अभिनेत्री की धमकी
Monday, August 10, 2009
प्रभात ख़बर, हरिवंश और उनका नीतीश प्रेम
अगर एक अखबार किसी भी सरकारी नीति के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन के प्रति इस हद तक आक्रामक हो जाए कि समाज से इसके विरुद्ध खड़ा होने का आह्वान करने लगे, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके इस पक्ष के निहितार्थ क्या होंगे और एक अखबार जब खुलेआम एक पक्ष बन जाता है तो कितना बुरा हो सकता है। राजू रंजन जी ने अपने लेख में इस मसले पर काफी कुछ कह दिया है और वे ठीक कहते हैं कि दूसरों की अयोग्यता पर अंगुली उठाने वालों को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी मांगों के लेकर नवनियुक्त शिक्षा मित्रों के आंदोलन के प्रति अपने घृणा-प्रदर्शन के बाद ‘प्रभात खबर’ को इस बात का अहसास हो कि उसने क्या किया है। ‘हे ईश्वर, इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’- जैसा जुमला उछालने के तत्काल बाद इस अखबार में ‘दर्शक’ के नाम से प्रकाशित लंबे लेख में कहा जाता है कि इन शिक्षा मित्रों को नहीं पता कि बिहार का भविष्य इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। जैसे कि ये बिहार के भविष्य के नियंता हों और... ((READ MORE))
कोई अख़बार जवाब भी नहीं देता, बेशर्मी की हद है!
Sunday, August 9, 2009
"आपसे आग्रह है कि ये बहस यहीं बंद कर दें"
Saturday, August 8, 2009
चुप्पी टूटेगी और टूटेंगे मीडिया के सभी मठ
Friday, August 7, 2009
मणिपुर में मीडिया पर हमला
दैनिक जागरण और उसकी "फोटो कलाकारी"
उसी अख़बार में पृष्ठ संख्या 13 पर राहुल गांधी की एक और फोटो है। ये ब्लैक एंड व्हाइट है। इसमें भी राहुल ठीक उसी लिबास में और उसी मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े हैं। उनके पीछे मौजूद व्यक्ति भी वही है। बस यहां पर राहुल गांधी के बगल में हैं कांग्रेस नेता रीता बहुगुणा और सामने है एक कांग्रेस कार्यकर्ता – जो उन्हें सैल्यूट .... (READ MORE)
Thursday, August 6, 2009
“जिम्मेदारी तो संपादक को ही लेनी पड़ती है”
मीडिया में दफ़न हैं सुलगते मणिपुर की ख़बरें
Wednesday, August 5, 2009
शिक्षक नशेड़ी, गंजेड़ी हैं तो क्या पत्रकार संत हैं?
राजू रंजन प्रसाद प्रगतिशील विचारों वाले बेहद शालीन और सज्जन शख़्स हैं। इतिहास और समाजशास्त्र में गहरी पैठ है। पटना से उन्होंने पीएचडी की है। कुछ खास मसलों पर समझौता नहीं कर सके, इसलिए किसी कॉलेज में प्रोफेसर नहीं बन पाए। फिलहाल राज्य सरकार के एक स्कूल में नवनियुक्त शिक्षक हैं और पूरी ईमानदारी से बच्चों को पढ़ाते हैं। साहित्य और आलोचना में भी इन्होंने काफी काम किया है। हाल ही में पटना में जब अस्थाई शिक्षकों ने अपनी मांगों के साथ विरोध प्रदर्शन किया तो पुलिस ने शिक्षकों को दौड़ा-दौड़ा पीटा। उसके बाद कुछ पत्रकारों ने शिक्षकों की आलोचना शुरू की। आलोचना की एक मर्यादा होती है। लेकिन कई पत्रकार ये मर्यादा भी लांघ गए। राजू रंजन प्रसाद ऐसे तमाम पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि गिरावट कहां नहीं आई है? क्या पत्रकारिता का स्तर नहीं गिरा है? क्या पत्रकारों की भाषा नहीं बिगड़ी है? आप उनका ये लेख पढ़िये और हो सके तो उनके सवालों का अपने स्तर पर ही सही जवाब दीजिए।
Tuesday, August 4, 2009
पत्रकार का क़ातिल जैश मोहम्मद का आतंकी
जांच एजेंसियों के मुताबिक जैश मोहम्मद के आतंकी यासिर अल तखी ने अपने दो भाइयों और एक साथी के साथ मिल कर अतवार और उनकी टीम का अपहरण किया। फिर उसके दोनों भाइयों ने अतवार के कैमरामैन अदनान अब्दुल्ला और साउंड इंजीनियर खालिद मोहसिन की हत्या कर दी। जबकि उनका चौथा साथी किसी तरह भागने में कामयाब हो गया। उसके बाद यासिर ने बंदूक की नोक पर अतवार का बलात्कार किया और गोली मार दी। जांच अधिकारियों के मुताबिक ... ((READ MORE))
संस्कृति के रक्षकों कहो- किसकी रोटी में किसका लहू है?
भारतीय संस्कृति की रक्षा का फैसला कर तो लिया, लेकिन इस पर अमल कैसे करूं समझ नहीं आ रहा। आखिर जिसकी रक्षा करनी है, उसका अता-पता, उसकी पहचान तो मालूम होनी चाहिए। दिक्कत यहीं है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि आखिर ये भारतीय संस्कृति है क्या चीज़? एक बार संघ प्रशिक्षित एक वीएचपी नेता ने मुझे समझाया था कि हिंदू - मुसलमान एक मुल्क में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उनकी दलील थी - दोनों की संस्कृति अलग है। हिंदू पूरब की ओर मुंह करके पूजा करता है, मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके। हिंदू हाथ धोते हुए कोहनी से हथेली की ओर पानी डालता है, मुसलमान वज़ू करते हुए पहले हथेली में पानी लेता है, फिर कोहनी तक ले जाता है। हिंदू का तवा बीच में गहरा होता है, मुसलमान का बीच में उठा हुआ होता है...कितनी अलग है दोनों की संस्कृति...कैसे रह सकते हैं साथ-साथ? आशय ये था कि हिंदू-मुसलमान की राष्ट्रीयता .... (( READ MORE))
Monday, August 3, 2009
"40 हज़ार कोड़े सह सकती हूं, अपमान नहीं"
ये कहना है सूडान की पत्रकार लुबना अहमद अल हुसैन का। लुबना समेत तीन महिलाएं पैंट पहनने के कारण अभद्र व्यवहार की आरोपी हैं। लुबना के मुताबिक उन्हें कोड़े बर्दाश्त हैं लेकिन अपमान बर्दाश्त नहीं। वो इसे नारी जाति का अपमान मानती हैं। मानवता का अपमान मानती हैं। लुबना चाहती तो इस मुकदमे से बच सकती थीं। संयुक्त राष्ट्र की कर्मचारी होने के नाते ..... READ MORE
ये संपादक तो बड़ा ख़तरनाक है
एक मिनट रुकिए, पुलिस का क्रूर चेहरा देखिए
अभी जनतंत्र पर चल रही बहस को बीच में रोकते हुए आप सभी से तहलका डॉट कॉम पर छपी एक ख़बर पढ़ने की गुजारिश कर रहा हूं। उस ख़बर का हेडर है मर्डर इन प्लेन साइट। ऐसी ख़बरें बहुत कम ही पढ़ने, देखने और सुनने को मिलती हैं। हम सब जानते हैं कि किस तरह सुरक्षाबल अपने अधिकार का बेजा इस्तेमाल करके बेकसूर लोगों को गोलियों से छलनी करते हैं। ये राज्य का आतंकवाद है जिसके आगे किसी भी तरह का आतंकवाद अदना सा लगता है। जम्मू कश्मीर, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व ज़्यादातर राज्यों में इस आतंकवाद का घिनौना चेहरा देखने को मिल जाएगा। तहलका ने जिस चेहरे को उजागर किया है वो चेहरा मणिपुर का है।
23 जुलाई को इंफाल में संजीत नाम का एक युवक मुठभेड़ में मारा जाता है। मणिपुर पुलिस कमांडो के जवान उसे घेर कर मार ..... READ MORE
Sunday, August 2, 2009
“नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक “अनवर” है”
अनवर के लेख पर काफी बहस हुई है। लेकिन इस बहस में लेख के मुख्य विषय से ज़्यादा ज़ोर एक खास वाक्य पर है। बहुत से लोगों को एतराज़ है कि अनवर ने "भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति क्यों लिख दिया।" हालांकि अनवर ने ये नहीं लिखा कि भारतीय संस्कृति भाड़ में जाए। इसके ठीक उलट पूरे लेख को पढ़ें, तो उनकी ये राय साफ ज़ाहिर होती है कि भारतीय संस्कृति इतनी मज़बूत है कि एक टीवी शो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसी बात को और भी ज़ोर देकर और चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में कहने के लिए ही उन्होंने लिखा है कि "अगर आधे घंटे का एक टेलीविज़न शो सदियों पुरानी संस्कृति को उखाड़ फेंक रहा हो, तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति।" इस वाक्य का ये अर्थ निकालना कि लेखक भारतीय संस्कृति को भाड़ में झोंकना चाहते हैं, भाषाई अभिव्यक्ति की कच्ची समझ के सिवा कुछ नहीं है। पहला वाक्य अगर ठीक से समझ में न आ रहा हो, तो भी पूरे लेख को पढ़ने के बाद तो लेखक की राय समझ में आ ही जानी चाहिए। अंतिम पैराग्राफ से ठीक पहले वाले पैराग्राफ में अनवर ने लिखा है, "अगर वाक़ई शो संस्कृति को मार रहा हो, तो फिर संस्कृति ही इसे मार देगी। भारत की संस्कृति कोई जुमा जुमा आठ दिन की संस्कृति तो है नहीं।" इसके बाद भी कुछ लोग पता नहीं क्यों इतने भड़के हुए हैं? कहीं इसके पीछे वजह ये तो नहीं कि लेख 'अनवर जमाल अशरफ' ने लिखा है?
- अनिकेत
.... ((READ MORE))
"नाराज़गी इसलिए तो नहीं कि लेखक "अनवर" है"
ये नीतीश की उदारता नहीं चालाकी है
Saturday, August 1, 2009
"ट्रस्ट नहीं बनने दिया, इसलिए निशाने पर हूं"
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेंबर में जो कुछ भी हुआ उस पर वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमार अफसोस जाहिर कर चुके हैं। कन्हैया भेलारी भी उस घटना को शर्मनाक बता रहे हैं। वो मानते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए था जिससे प्रकाश कुमार के सम्मान को ठेस पहुंची। लेकिन उनका ये भी कहना है कि प्रकाश को उनका मजाक पसंद नहीं आया तो वो शब्दों के जरिए विरोध जता सकते थे। जनतंत्र से वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी की बातचीत।
सवाल – मुख्यमंत्री के चेंबर में आखिर झगड़े की नौबत क्यों आई? प्रकाश से आपका झगड़ा किस बात पर हुआ?
कन्हैया भेलारी - मैं जब मुख्यमंत्री के चेंबर में घुसा तब वहां पहले से क्या बातचीत चल रही थी इसका मुझे अंदाजा नहीं था। मैंने जब .... (READ MORE)
Friday, July 31, 2009
"हम पत्रकारों का सिर शर्म से झुका जा रहा है"
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दफ़्तर में पत्रकारों के बीच मारपीट से वहां का मीडिया जगत हैरान है। सब इसे बहुत दुखद और शर्मनाक बता रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकारों के मुताबिक इससे पत्रकारिता का दामन दाग़दार हुआ है और इसकी हर किसी को खुल कर निंदा करनी चाहिए। ये इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे से ऐसी कोई हरकत नहीं हो। जनतंत्र ने इस बारे में बिहार के कई प्रतिष्ठित पत्रकारों से बात की।
उनकी प्रतिक्रिया पढ़ने के लिए रीड मोर पर क्लिक करें ... READ MORE
Thursday, July 30, 2009
मुख्यमंत्री के चेंबर में पत्रकारों ने की मारपीट
वाकया आज दोपहर का है। लेकिन इस झगड़े की जड़ में आज सुबह दैनिक जागरण के पटना एडिशन में छपी एक तस्वीर है। नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस के पीछे स्टार न्यूज के पत्रकार प्रकाश कुमार भी मौजूद थे। लेकिन तस्वीर में उनका चेहरा ब्लर कर दिया गया था। इसलिए कि प्रेस क्लब को लेकर दैनिक जागरण के पत्रकारों से उनका झगड़ा हो चुका था। खुन्नस में दैनिक जागरण के उन पत्रकारों ने प्रकाश कुमार से बदला इस ओछे तरीके से लिया।.... READ MORE
Wednesday, July 29, 2009
पान खाओ, नशा करो... खरीद कर पढ़ना मत
अब गूगल की खैर नहीं!
दस साल के लिए हुए इस समझौते में याहू.कॉम अब माइक्रोसॉफ्ट के नए सर्च इंजन बिंग का इस्तेमाल करेगा। दोनों को उम्मीद है कि इससे याहू पर विज्ञापन क्षेत्र की बड़ी कंपनियां आकर्षित होंगी। इस करार से जो भी आमदनी होगी माइक्रोसॉफ्ट उसमें से 88 फीसदी याहू को दे देगा।... READ MORE
संसद में भी बजी टीआरपी की घंटी, मगर क्यों?
ये सब जानते हैं कि बीएजी फिल्म को राजीव शुक्ला की पत्नी .... READ MORE
Monday, July 27, 2009
...तो भाड़ में जाए ऐसी संस्कृति
बेरहम सरकार, जंगली विपक्ष
करगिल उत्सव ख़त्म, नहीं हुई गंभीर बात
करगिल सैनिकों के लिए जीत थी। लेकिन वो युद्ध हुआ तो भारत की नाकामी की वजह से। हमारी सीमा में पाकिस्तानी सैनिक घुस आए और बंकर बना लिये। हमारे पास खुफिया ... READ MORE
लूटपाट, क़त्ल और व्यभिचार के लिए एकजुट हों !
"सच का सामना" के बचाव में कई महारथी मैदान में उतर आए हैं। वीर सांघवी का कहना है कि अगर आपको रिएल्टी टीवी पसंद नहीं तो अपना मत रिमोट से जाहिर कीजिए। चैनल बदल दीजिए। वो भी ऐसा करते हैं इसलिए भारत के तमाम दर्शकों से उनकी अपील है कि वो भी ऐसा ही करें। वीर सांघवी के मुताबिक सच का सामना या फिर ऐसे किसी भी कार्यक्रम को बंद करना सेंसरशिप को बढ़ावा देना है। वो ऐसी किसी भी सेंसरशिप के पक्ष में नहीं।
मीडिया से जुड़ी चर्चित वेबसाइट "एक्सचेंज फॉर मीडिया" पर एक लेख छपा। चार दिन पहले। कोई प्रद्युमन महेश्वरी हैं। मीडिया के बड़े जानकार मालूम होते हैं। उन्होंने सरकार से कहा है कि वो टीवी चैनलों को उनके हाल पर छोड़ दें। वो "सच का सामना" के समर्थन में यहां तक कह देते हैं कि नेताओं की कई हरकतें ऐसी होती हैं जिनसे बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। तो क्या उन पर भी पाबंदी लगा दी जाए। यह भी कहते हैं कि सभी चैनलों को इस कार्यक्रम के समर्थन में एकजुट हो जाना चाहिए।
अब आप समझ सकते हैं कि "सच का सामना" के समर्थन में कितने बड़े-बड़े लोग मैदान में उतर आए हैं। इस बीच एक ख़बर यह भी है स्टार प्लस ने इस शो को बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। इसके समर्थन में पूरी फौज खड़ी की जा रही है। नए-नए तर्क गढ़े जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी और क्रिएटिविटी को सबसे मजबूत ढाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर "सच का सामना" रोका गया तो ये रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की हत्या होगी। बचाव की इन दलीलों में कितना दम है इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे। शुरुआत करते हैं कि आखिर सच का सामना में रचनात्मकता कितनी है और कितनी नहीं? .......... READ MORE
Sunday, July 26, 2009
टाइम का टाइम ख़राब, इकोनमिस्ट की बढ़ी इनकम
ऐतिहासिक मंदी ने दुनिया भर के मीडिया संस्थानों की हालत ख़राब कर दी है। विस्तार की योजनाएं ठप पड़ी हैं। कई बड़ी कंपनियों पर कर्ज का बोझ बेतहाशा बढ़ गया है। बहुत से अख़बार बंद हो चुके हैं। वेबसाइट भी घाटे में हैं। लेकिन इन सब निराशाजनक ख़बरों के बीच द इकोनमिस्ट ने मुनाफा कमाया है। क्यों और कैसे - ये बता रहे हैं बॉन से ओंकार सिंह जनोटी। ओंकार एक ऐसे उभरते हुए पत्रकार हैं जिनमें असीम ऊर्जा है और व्यापक समझ भी। वो इन दिनों जर्मनी के डॉयचे वेलेको अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
डिजिटल एज कहे जाने वाले इस दौर में समाचारों में कमी नहीं है. लेकिन दुनिया भर में मशहूर और दिग्गज मानी जाने वाली टाइम और न्यूज़वीक मैग्ज़ीन की हालत ख़स्ता है. विज्ञापन से होने वाली आय के मामले में बीते साल न्यूज़वीक को 27 फीसदी नुकसान हुआ और टाइम को 14 फीसदी तिजोरी ख़ाली देखनी पड़ी. लेकिन पब्लिशर्स इंफार्मेशन ब्यूरो के मुताबिक़ द इकोनमिस्ट मैग्ज़ीन ने न सिर्फ मंदी को पटख़नी दी, बल्कि आमदनी को भी 25 फीसदी बढ़ाया. अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया पर बारीक नज़र रखने वाले द एटलांटिक डाट कॉम के कांट्रिब्यूटिंग एडीटर माइकल हाइशोर्न और एडीटोरियल डायरेक्टर बॉब काह्न कहते हैं कि अब वक्त बदल रहा है.... ((READ MORE))
नाम रह जाएगा….
दोस्तों के साथ बैठे हों, वो भी एनएसडी यानी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के हॉस्टल में, तभी कोई ज़ोर से आवाज़ लगाए- 'प्रशासन..!' क्या लगेगा? शायद किसी नाटक का संवाद बोला जा रहा है या फिर...? पता चला एक साथी एक्टर का नाम है। पूरा नाम है- प्रशासन संरक्षण मल्तियार। पता नहीं कितना सही था लेकिन मेरे चौंकने पर दोस्तों ने बताया कि प्रशासन के घर में और लोगों के नाम भी ऐसे ही - राष्ट्र, राज्य, संविधान, नीति टाइप के हैं। ..... READ MORE
Saturday, July 25, 2009
सबसे पहले तो बंद करो “सच का सामना”
“सच का सामना” बंद होना चाहिए या नहीं - इस पर बहस तेज़ हो रही है। वैसे ऐसे कार्यक्रमों में कोई बुराई नहीं। लेकिन क्या सच में हमारा समाज ऐसे किसी भी सच का सामना करने के लिए तैयार है? शुरुआती कुछ खुलासों से ऐसा नहीं लगता। आप सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली को ही लीजिए। विनोद कांबली ने इस कार्यक्रम के दौरान कह दिया कि सचिन ने उनकी उतनी मदद नहीं की। चाहते तो कर सकते थे। लेकिन नहीं की। बाद में इसका खंडन किया। लगभग गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में कहा कि उनकी मंशा ऐसा नहीं थी। लेकिन लोग कांबली की सफ़ाई कबूल करें भी तो कैसे? उन्होंने टीवी पर कांबली को खुद इस सच से पर्दा उठाते देखा। सचिन से रिश्तों में दूरी बढ़ गई। दोनों दोस्त अब दूर हो गए।
यह बात उस दोस्ती की है जिसकी लोग मिसाल दिया करते थे। खेल की दुनिया में लोग उनकी दोस्ती की कसम खाते थे। दोनों को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इस घटना ने इतनी दरार पैदा कर दी जिसे भविष्य में पाटना बहुत मुश्किल होगा।
बहुत से लोग.... READ MORE
Friday, July 24, 2009
सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
लेकिन सभी जगह अश्लीलता की परिभाषा में कुछ केंद्रीय तत्व हैं। जिनमें सबसे अहम है कि कोई भी रचना साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मानदंडों पर कहां तक खरी उतरती है। उस रचना की मंशा क्या है और उसके पीछे तर्क क्या है? अगर किसी भी कृति में इनमें से कोई भी तत्व ठोस स्तर पर मौजूद है तो आप उसे सीधे तौर पर अश्लील करार नहीं दे सकते हैं।.... READ MORE
Thursday, July 23, 2009
खजुराहो क्या हमारे पर्यटन उद्योग का अश्लील पैकेज है?
जनतंत्र पर साथी कबीर ने दो दिन पहले एक लेख लिखा। नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर की वेबसाइट पर ख़बरों के रूप में अश्लील साहित्य परोसने का आरोप लगाते हुए कबीर ने सविता भाभी की तरह उन पर प्रतिबंध लगाने का मांग की। आजवरिष्ठ पत्रकार अविनाश ने कबीर के लेख का जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि ये मांग बेतुकी है। साइबर स्पेस में हर किसी का अपना कोना है। दूसरे का कोना छेकने का हक़ किसी को नहीं होना चाहिए। कानून को भी नहीं। आप उनका लेख पढ़िए और उतनी ही बेबाकी से अपनी राय रखिए जितनी बेबाकी से अविनाश ने लिखा है।
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मुझे मालूम नहीं कि अश्लीलता के संदर्भ में विचारधारा का सवाल कितना पारिभाषित है - लेकिन इतना मालूम है कि ऐसे किसी भी व्यवहार पर कानूनी पाबंदी है। इसके बावजूद धड़ल्ले से अश्लील साहित्य प्रकाशित होते हैं और बड़े पैमाने पर बिकते हैं। पचास-साठ के दशक में राजकमल चौधरी ने मैथिली में एक नॉविल लिखा था, पाथर फूल। दरभंगा के एक प्रेस से छप रहा था। किसी कर्मचारी ने ..... (READ MORE)
एनडीटीवी को 83.4 करोड़ रुपये का घाटा
पिछले साल इसी तिमाही की तुलना में आमदनी में करीब 11.28 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई है। जबकि खर्च में 20. 2 करोड़ रुपये की कमी आई है। सबसे अधिक कटौती मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन और प्रमोशन खर्च में हुई है। जबकि प्रोडक्शन खर्च और पर्सनल एक्सपेंसेज में मामूली कमी आई है। नतीजों के मुताबिक कंपनी पर ब्याज का बोझ भी बढ़ा है। ..... (( READ MORE))
साहित्य की दुनिया इतनी ही गंदी है दोस्तों
सबसे पहले तो यह कि उदय प्रकाश ने जो गुनाह किया है उसके लिए उनका बचाव नहीं किया जा सकता। भविष्य में जब भी उदय प्रकाश के इस गुनाह का मूल्यांकन किया जाएगा तो आज जो भी उनके बचाव में खड़े हैं, वो सभी उनके इस गुनाह में बराबर के भागीदार माने जाएंगे। वो जाने-अनजाने में एक ऐसी प्रवृति को जन्म दे रहे हैं जिसमें कोई भी साहित्यकार किसी फासीवादी ... किसी भी दंगाई के गले में बांह डाले घूमेगा और आलोचना करने वालों से कहेगा कि “तुम मेरे कर्म को मत देखो मेरा साहित्य पढ़ो। मैं निजी ज़िंदगी में कुछ भी होऊं तो क्या लेकिन साहित्य में तो साम्यवादी हूं। गरीबों की बात करता हूं... पिछड़ों, दलितों के साथ हूं। तुम मेरे साहित्य की वजह से मुझे चाहते हो... इसलिए मेरे उसी रूप की पूजा करो”। .... READ MORE
Tuesday, July 21, 2009
... तो कलाम नहीं जाते अमेरिका
इसी साल 24 अप्रैल को डॉक्टर कलाम सरकारी यात्रा पर अमेरिका जा रहे थे। उन्हें इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर कॉन्टीनेंटल एयरलाइंस की फ्लाइट संख्या सीओ-083 से न्यूयॉर्क जाना था। तब उस एयरलाइन कंपनी के कर्मचारियों ने सुरक्षा जांच के नाम पर डॉक्टर कलाम की जेब में रखा पर्स और उनका मोबाइल ही नहीं उतरवाया, बल्कि जूते तक खोलवा लिये। कायदे से भारत का पूर्व राष्ट्रपति उस वीआईपी श्रेणी में आता है, जहां उसे ऐसे शक और जलालत की नजर से नहीं देखा जा सकता। लेकिन अमेरिकियों ने किसी दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष या पूर्व राष्ट्राध्यक्ष का सम्मान करना कब सीखा?.... (READ MORE)
"सविता भाभी" की तरह इन पर भी लगे प्रतिबंध
ये एक ऐसी वेबसाइट थी, जो खुलेआम दावा करती थी कि वो पोर्न कार्टून वेबसाइट है। लेकिन यहां तो कई अख़बार अपने पन्नों पर और अपनी वेबसाइट पर वैसा ही अश्लील मसाला देते हैं, ..... (READ MORE)





Saturday, July 18, 2009
जब नंगी तस्वीरों से काम चले तो ख़बर कौन पूछे?
हिंदी मीडिया की मौजूदा हालत के लिए आखिर कौन-कौन जिम्मेदार हैं? जनतंत्र पर इस सवाल से जुड़ी एक बहस चल रही है। हमने उदयन शर्मा की याद में हुए संवाद के बहाने इस मुद्दे पर कुछ सवाल उठाए थे। फिर प्रोफेसर आनंद कुमार का वो लेख छापा जिनमें कई सवालों के जवाब थे। अब उसी बहस को आगे बढ़ा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह। जनसत्ता से संजय कुमार सिंह का गहरा नाता रहा है। उन्होंने इस अख़बार को 1987-2002 तक पंद्रह साल दिये हैं। अब वो अनुवाद के जरिए अपनी जीविका चला रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में आर वेंकटरमन की पुस्तक "माइ प्रेसिडेंशियल इयर", एन के सिंह की "द प्लेन ट्रूथ", जे एन दीक्षित की "इंडो पाक रिलेशन" और लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा की "वीर कुंवर सिंह" समेत बीस से ज़्यादा चर्चित पुस्तकों का वो अनुवाद कर चुके हैं। आप जनतंत्र पर उनका ये लेख पढ़िए और हिंदी पत्रकारिता की दशा-दिशा पर चल रही बहस को आगे बढ़ाइए।
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हिन्दी पत्रकारिता की दशा दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। एक समय हिन्दी के मानक कहे गए अखबार जनसत्ता का हवाला देकर बातें तो की जा सकती हैं पर उसका कोई मतलब नहीं है। अगर यह तथ्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी अखबारों के मुकाबले अंग्रेजी वालों को ज्यादा महत्त्व देते रहे तो इसका मतलब है और ऐसा क्यों है यह समझना कोई मुश्किल नहीं है और इसके लिए अगर कोई दोषी है तो वो हम ही हैं। इनमें पत्रकार, संपादक, मालिक सलाहकार सब की भागीदारी है। हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों, पाठकों, पत्रकारों, मालिकानों ..... READ MORE
पाठकों को धोखा दे रहा है “हिंदुस्तान”
"हिंदुस्तान" के कुछ फैसले चौंकाने वाले होते हैं। उन्हें "सामान्य समझ" रखने वाले पाठक नहीं समझ सकेंगे। जैसे मैं नहीं समझ पा रहा हूं। इसके लिए शायद कुछ "ज़्यादा ज्ञान" की जरूरत हो जो मुझमें नहीं है। लेकिन एक पाठक होने के नाते मुझे ये पूरा हक़ है कि अपनी नादानी की वजह से ही जो मेरे मन में सवाल उठ रहे हैं उन्हें सबके सामने जाहिर करूं। बीते दो दिन में हिंदुस्तान ने दो बड़े फ़ैसले लिये। बाकी तमाम हिंदी अख़बारों से अलग फ़ैसले लिए। किस मंशा से... किन वजहों से... सही-सही तो वहां के संपादक ही बता सकेंगे। हम और आप बस एक विश्लेषण कर सकते हैं।
शुरुआत करेंगे हिंदुस्तान के दूसरे फ़ैसले से। यानी आज के फ़ैसले से। आज हिंदुस्तान में फ्रंट पेज से मेट्रो पर सीएजी की रिपोर्ट...... ((READ MORE))
Friday, July 17, 2009
नवभारत टाइम्स को तगड़ा झटका, मधुसूदन आनंद का इस्तीफ़ा
नवभारत टाइम्स में मधुसूदन आनंद बीते डेढ़ दशक से सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। लेकिन बीते एक साल में अपने अधिकारों में कटौती को लेकर थोड़ा खिन्न चल रहे थे। करीब बारह साल पहले सूर्यकांत बाली के जाने के बाद से नवभारत टाइम्स को दो स्तंभ रहे हैं। समाचार पक्ष रामकृपाल सिंह के हवाले रहा तो विचार पक्ष मधुसूदन आनंद के जिम्मे। कुछ साल पहले जब... READ MORE
Thursday, July 16, 2009
"जनसत्ता" और उसकी ये "महान" खोजी पत्रकारिता
Monday, July 13, 2009
हिंदी पत्रकारिता के नाम दो मिनट का मौन
Sunday, July 12, 2009
नेताओं और पत्रकारों की छींटाकशी में छूट गए मुद्दे
Saturday, July 11, 2009
मीडिया में “मायावती” और “कांशी राम” क्यों नहीं हैं?
सियासत में सम्मानजनक स्थान हासिल कर चुकी पिछड़ी जातियों और दलितों के नुमाइंदे
मीडिया में वो मुकाम हासिल नहीं कर सके हैं। आखिर क्यों? क्या ये उनकी नाकामी है।
नहीं। ये उनकी नाकामी कतई नहीं… ये तो अगड़ों की साज़िश है। आप वरिष्ठ
पत्रकार अनिल चमड़िया का ये लेख पढ़ें और सदियों से चली आ रही इस साज़िश
को करीब से समझें। भारतीय मीडिया के जातिवादी और सामंती चेहरे को करीब से देखें।
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सुशील का फोन आया ‘सर आज भी नेशनल एडिशन में पहले पन्ने पर बाई लाइन स्टोरी लगी है। ये चौथी है सर! पहले भी नेशनल एडीशन में तीन स्टोरी लगी थी। एक तो लीड भी बनी थी सर! सुशील बहुत खुश था। वह उत्तर प्रदेश के उस पिछड़े जिले से स्थानीय संस्करण के लिए बाई लाइन खबरें तो ढेरों निकाल लेता है, साथ ही उसने कई ऐसी स्टोरी की हैं जिन्हें कई संस्करणों में निकलने वाले समाचार पत्र ने बहुत ही प्रमुखता से छापा है। सुशील देश में पत्रकार तैयार करने वाले बेहतरीन ब्रांड के संस्थान से निकला है। वह अपनी कक्षा में पहला छात्र था जिसकी चिट्ठी ने पाठकों के पत्रों के बीच अपनी जगह बनाई थी। उसने जनसत्ता के संपादक को एक दिन समाचार पत्र में छपी कुछ गलतियों को सुधारने के लिए एक चिट्ठी लिखी थी। संपादक ने उसे धन्यवाद पत्र भी भेजा था। .....((read more))
Thursday, July 9, 2009
मीडिया की आधी आबादी का सच
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ज़मींदारों और जजों के खानदान की इस लड़की के पत्रकार बनने की कहानी कोई तीन दशक पुरानी है। भारत सरकार में संयुक्त सचिव अपने पिता के साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग से दिल्ली पहुंचकर इस महानगर की नब्ज भांपने की कोशिश कर रही थी कि एक दिन सड़क पार भारतीय जनसंचार संस्थान जाना हो गया। तब ये संस्थान साउथ एक्सटेंशन यानी मेरे आवास के पास था। वहां दिल्ली पाठ्यक्रम के निदेशक डॉ. रामजीलाल जांगिड़ मिल गए। उनसे मिलकर अपनी लिक्खाड़ तबियत और समसामयिक विषयों में दिलचस्पी के बारे में बताया तो बोले- एक कार्यशाला होने वाली है, खेल पत्रकारिता पर। उसमें क्यों नहीं शामिल हो जाती? मैं डेढ़ सौ रुपये देकर ..... ((READ MORE))
“हिंदुस्तान” का अंधविश्वास
अब आप वहां छपी एक और ख़बर पर नज़र डालिए। इसे 12वें पन्ने पर बड़ी प्राथमिकता से छापा गया है। .... ((READ MORE))
Thursday, July 2, 2009
जरनैल को नौकरी से निकाला गया
जरनैल सिंह ने 7 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को सीबीआई की तरफ से क्लीन चिट दिये जाने पर चिदंबरम से सवाल पूछा। चिदंबरम ने जवाब दिया लेकिन उससे जरनैल सिंह संतुष्ट नहीं हुए।
.... ((read more)) ....
जरैनल सिंह को दी गई चिट्ठी

Tuesday, June 30, 2009
पुष्पेंद्र से इस्तीफ़े की मांग, क्लब में घोटाले का आरोप
प्रेस क्लब के मौजूदा ट्रेजरार नदीम अहमद काजमी के मुताबिक शुरुआती “चंद हफ़्तों को छोड़ दिया जाए तो उसके बाद लेन-देन के किसी भी दस्तावेज पर उनके हस्ताक्षर नहीं मिलेंगे। ऐसा इसलिए कि प्रेस क्लब के जनरल सेक्रेटरी पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ सारे लेन-देन अपने ही हस्ताक्षर से करते हैं।” उनका ये आरोप भी है कि ... ((READ MORE))
Monday, June 29, 2009
घुसपैठ के बाद दिल्ली के प्रेस क्लब में पहुंची पुलिस
रविवार, 28 जून 2009 को दिल्ली के प्रेस क्लब में पुलिस दाखिल हुई। मामला प्रेस क्लब में घुसपैठ का था। चश्मदीदों के मुताबिक वहां करीब 11 बजे एक कपूर नाम का शख़्स करीब 40-45 लोगों के साथ दाखिल हुआ। ... ((READ MORE))
न्यूज़ एक्स में क़त्लेआम
न्यूज़ एक्स में करीब सभी महकमों में अहम पदों पर तैनात लोगों पर गाज गिरी है। पॉलिटिकल एडिटर .... ((READ MORE))
Sunday, June 28, 2009
पीएम की मस्ती, पीएम का मीडिया
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मीडिया को मैनुपुलेट किया जाता है। मीडिया चाहे तो किसी नायक को एक पल में खलनायक बना दे और किसी खलनायक को नायक। इटली में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वहां के प्रधानमंत्री बार्लुस्कोनी सेक्स स्कैंडल में फंसे हैं। विरोधी पार्टियां जांच के लिए दबाव डाल रही हैं तो दूसरी तरफ बार्लुस्कोनी अपने न्यूज़ चैनलों की मदद से बचाव में जुटे हैं। इससे पहले भी बार्लुस्कोनी कई बार संगीन आरोपों में फंस चुके हैं, लेकिन हर बार मीडिया के इस्तेमाल और अपनी चतुराई से वो बचते रहे हैं। यूरोप से पूरा ब्योरा दे रहे हैं साथी पत्रकार अनवर जे अशरफ़।
इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बार्लुस्कोनी यूरोप के शायद सबसे विवादित राष्ट्राध्यक्ष हैं. यूं तो बार्लुस्कोनी 72 साल के हैं लेकिन अनगिनत सेक्स स्कैंडलों में फंसे हैं. उन पर प्रधानमंत्री रहते हुए नाबालिग़ लड़की से रिश्ते रखने से लेकर कॉल गर्ल के साथ रात बिताने तक के आरोप हैं. भ्रष्टाचार, टैक्स चोरी और माफ़िया से रिश्तों का आरोप अलग. सवाल यह उठता है कि इतने आरोपों के बाद वह पद पर कैसे बने हैं. शायद मीडिया में उनका दख़ल सबसे बड़ी वजह है. बार्लुस्कोनी एक कुशल राजनेता के साथ साथ इटली के अरबपति कारोबारी भी हैं और देश के मीडिया बाज़ार का बहुत बड़ा हिस्सा उनकी कंपनी चला रही है.
कॉल गर्ल से जुड़ा ताज़ा क़िस्सा ही लीजिए. आरोप है कि बार्लुस्कोनी के आलीशान घर पर पार्टी हुई, जिसमें मोटी फ़ीस पर महंगी कॉल गर्ल शामिल हुई. मामला सामने आने के बाद प्रधानमंत्री इनकार तो नहीं कर पाए लेकिन सधे सधाए मीडिया के ज़रिए सफ़ाई ज़रूर पेश कर दी. अपने ही अख़बार को .... ((READ MORE))
Saturday, June 27, 2009
“एसपी को खरीदने की हैसियत किसी में नहीं थी”
आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष ने कहा कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को एक कुंठा से बाहर निकाला और उसे पेशेवर बनाया। उन्होंने बताया कि एसपी के दौर से पहले हिंदी का पत्रकार कुंठा में जी रहा था। वो अंग्रेजी के पत्रकारों को अपने से ऊपर मानता था। शायद इसलिए क्योंकि सत्ता के गलियारे में उनकी सुनी जाती थी। हिंदी के पत्रकारों की नहीं। लेकिन एसपी ने अपने तरीके से हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारों के बीच खिंची दीवार गिरा दी। “आज तक” के जरिए साबित किया कि हिंदी के पत्रकार किसी से कम नहीं हैं और उनकी आवाज़ को कोई अनसुनी नहीं कर सकता। आशुतोष ने ये भी कहा कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को.... ((READ MORE))